मैं आजकाल ऋषिकेश शहर में निवास करता हूं और श्री श्री राधारससुधानिधि का नित्यपाठ चलता रहता है कोयील घाटि वृन्दावन आश्रम ट्रास्ट के मन्दिर में। इस के सिवा मैं शनिवार एवं रविवार को मधुबन के मन्दिर में भगवद्गीता पर कुछ आलोचना करता हूं। आपको निमन्त्रित करता हूं। आइये, श्रोता हों तो वक्ता का भी आनन्द बढता है।
दोनों पाठों में राधा की महिमा कीर्तन करने से मुझे ज्यादा आनन्द मिलता है। इस का सहज कारण यही है कि राधारानी, जिनको हम महाभाव स्वरूपिणी एवं भगवान् की आह्लादिनी शक्ति कहा करते हैं, हमारी मूल इष्टदेवता हैं ही।
जिस को वैष्णव सिद्धान्त के बारे में थोडा सा ज्ञान भी है, वह जानेगा कि वैष्णव धर्म का एक अत्यन्त लम्बा इतिहास है और इस के दौरान इस धर्म का स्वरूप बार बार परिवर्तित हुआ। पहले तो नारायण उस का इष्टा था, बाद में दूसरे दूसरे देवताएं नारायण तत्त्व में शामिल हो गये, जिन को भगवान के अवतार स्वरूप से गृहीत या स्वीकृत हुए।
उन में वासुदेव कृष्ण एक ही था। और वासुदेव में भी कृष्ण नामक यादवों की प्रिय देवता सम्मिलित हो गये। अहिस्ता अहिस्ता कृष्ण की प्रधानता बढती रही और लोग जानने लगे कि कृष्ण का नाम का व्युत्पत्त्यर्थ से - जो आकर्षण करता है - उस की भगवत्ता के सर्व श्रेष्ठ अनुमान किया जा सकता है। वैसे ही कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् हो गया।
जैसे श्रील रूप गोस्वामी ने कहा-
रसेनोत्कृष्यते कृष्णो रूप एष रसस्थितिः॥
सिद्धान्त या तत्त्व की ओर से विचार करते हुए हम बोल सकते हैं कि श्रीश नारायण और कृष्ण एक ही वस्तु या तत्त्व है। जैसे नारायण भगवान् है, वैसे ही कृष्ण भगवान् ही है। भगवान् के अनेक स्वरूप हैं, इस में क्या उलझन ? लेकिन अगर हम रस की ओर से विचार करें तो हमें स्थिर करना होगा कि कृष्ण का स्वरूप उत्कृष्ट है, क्यों कि यह रूप रस की स्थिति है।
देखिये, उपनिषदों में रसो वै सः कहा गया है - परम् ब्रह्म रस है। और यह रस का जो आस्वादन करेगा, वही आनन्दी भवति। इस आनन्द का नामान्तर है प्रेम। क्यों कि जिस किसी कारण से हो न क्यों जहां से आनन्द मिलता है, उस में हमारा प्रेम जाता है। और मूल वस्तु, परमार्थ वस्तु, रसराज भगवान् से जो आनन्द मिलता है, वह असमोर्ध्व है। भूमैव सुखम्। उसी में हमारा परम प्रेम होना स्वाभाविक है।
श्रीमद्भागवत्पुराण में इस पर भगवान् में एक वैशिष्ट्य आविष्कृत हुआ। भगवान् भक्त-भक्तिमान्। भगवान् भक्ति अधीन है। अहं भक्तपराधीनो कहते हैं भगवान्। इस का सुन्दर सूत्र माठरनामक किसी श्रुति में मिलता है-
भक्तिवशः पुरुषः भक्तिरेव भूयसी
भक्ति भगवान् को हमारे पास लाती है। भक्ति हमें भगवान् का साक्षात्कार देती हैं। भगवान् भक्ति का बस हैं। अत: भक्ति निश्चय ही सर्व प्रधान तत्त्व होंगी।
मध्ययुगीय भक्ति आन्दोलन में श्री चैतन्य महाप्रभु आदि क्रन्तिकारीं महापुरुषों ने फिर एक नया आविष्कार किया, जिस का नाम है राधा। अगर भक्ति भगवान् से बलवती है, तब जो भक्ति की अधिष्ठात्री देवी हैं, वह महाभाव स्वरूपिणी आह्लादिनी शक्ति स्वरूपिणी श्रीमती राधारणी निःसन्देह कृष्ण से भी बलवती होंगी।
इस का नतीजा हुआ कि राधारणी को छोडकर कृष्ण की भजना करना दम्भा मात्र देखा गया है, अर्थात् अकेला कृष्ण का भजन निरर्थक बन गया। युगल ही भगवान् का वास्तव स्वरूप देखा गया है, और युगल उपासना सर्वोच्च उपासना ।
स्फुरत् तत्तद्वस्त्राविति बुधजनैर्निश्चितम् इदम्।
स कोप्यच्छप्रेमा विलसदुभयस्फूर्तिकतया
दधन्मूर्तिभावं पृथगपृथगप्याविरुदभूत्॥
ये गौरी राधा और श्याम कृष्ण जो सामने बैठते हैं उन के मन में विपरीत देखा जाता है। अर्थात् राधा गौरी है लेकिन कृष्ण की चिन्ता करने के परिणति यही हु कि उस के मन काला हो गया। और कृष्ण काला है लेकिन राधा की चिन्ता करते करते उस का मन भी गौर वर्ण हो गया। और एक बात है कि बहिरपि उन के वस्त्रों के द्वारा यही प्रमाणित हुआ क्यों कि कृष्ण का पीतवसन है और राधारनि की नीलाम्बरी। फलतः विद्वान् लोग विचार करके इस सिद्धान्त पर आनीत हु कि को अतीव निर्मल स्वच्छ प्रेम इन दो रूपों में स्फूर्ति प्राप्त हुआ इन दो मूर्तिं को धारण किया एक प्रेम वस्तु ने दो रूप धारण किया पृथक् व अपृथक्।
राधा कृष्ण एक तत्त्व दो देह धारण करके परस्पर रस और लीला आस्वादन करते रहते हैं।
आज यहां तक ।