Photo by Vishakha Dasi.
वैदग्ध्यान्योऽन्यानुरागाद्भुतौघौ ।
नित्याभङ्गप्रोन्मदानङ्गरङ्गौ
राधाकृष्णौ खेलतः स्वालिजुष्टौ ॥१.१०॥
उस स्थान पर रूप-शोभा, वैदग्धी तथा पारस्परिक अनुराग के अद्भुत सागर का, एवं नित्य तथा भंगरहित उन्मादनकारी अनङ्ग-रङ्ग का आविर्भाव कर, श्री-राधाकृष्ण अपनी सखियों के सहित मिलकर लीला करते हैं ॥१.१०॥
दोषान् दृष्टान् निजहतदृशा वास्तवान् ये वदन्ति ।
तादृक् मूढा हरि हरि मम प्राणबाधेऽप्यदृश्याः
सम्भाव्या वा कथमपि नहि प्रायः सर्वस्वहास्याः ॥१.११॥
सर्वभाव से अति उत्कृष्ट इस श्री-वृंदावन में निज दुर्भाग्यवश दृष्ट-दोषों को जो लोग सत्य मान कर वर्णन करते हैं, अहो ! उन मूर्ख लोगों के मैं प्राण सङ्कट आने पर भी दर्शन नहीं करूंगा । किसी भी विषय में क्यों न हो, क्या वे सब के सामने उपहास्यास्पद न होकर रह सकते हैं ?
गोरूपाः सकला इहोपनिषदः कृष्णे रमन्ते व्रजे ।
वृन्दारण्यतृणं तु दिव्यरसदं नित्यं चरन्त्योऽनिशं
राधाकृष्णपादाम्बुजोत्तमरसास्वादेन पूर्णाः स्थिताः ॥१.१२॥
वेद और उपनिषद् समूह ब्रह्मानन्द को प्राप्त होकर भी तीव्र तपस्या द्वारा ईश्वर की सम्यक् रूप से आराधना कर इस श्री कृष्ण के ब्रज में धेनुरूप धारण करके आनन्द लाभ करते हैं । वे दिव्य रस-दान-कारी श्री-वृंदावन के तृण भक्षण कर निशिदिन नित्य श्रीराधाकृष्ण के चरणकमलों के उत्तम रसास्वादन से परिपूर्ण तृप्त होकर अवस्थान करते हैं ॥१.१२॥
Picture from Care for Cows Vrindavan
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