Friday, May 28, 2010

वृन्दावन-महिमामृत १.१३-१५


श्रीवृन्दावनवासिनि स्थिरचरे दोषान् मम श्रावयेद्
योऽसौ किं शतधा छिनत्ति नहि मां शस्त्रैरथास्त्रैः शितैः ।
सर्वाधीशितुरेव जीवनवने द्वेषन् च मात्रं चरेद्
एकस्यापि तृणस्य घोरनरकात् तं कः कदा वोद्धरेत् ॥१.१३॥
श्रीवृन्दावन वासी स्थावर जङ्गम में दोष हैं, ऐसा जो कोई मुझे सुनाता है, वह क्या तेज किये हुए अस्त्र द्वारा मेरे सैकड़ों टूकड़ों नहीं करता है ? सर्वाधीश्वर प्राण समान प्रिय वृन्दावन के एक तृण के प्रति भी जो स्वल्प द्वेषाचरण करता है, उसका फिर घोर नरक से क्या कभी कोई उद्धार करेगा ?



श्रीवृन्दारण्यशोभामृतलहरीः समालोकतो विह्वला मे
दृष्टिर्वा भातु वृन्दावनमहिमसुधावारिधौ मज्जताद्धीः ।
श्रीवृन्दारण्यभूमौ लुठतु मम तनुर्विह्वलानन्दपूरैः
श्रीवृन्दारण्यसत्त्वेष्वहह तत इतो दण्डवन् मे नतिः स्यात् ॥१.१४॥
श्रीवृन्दारण्य की शोभामृत तरङ्गों को अवलोकन करते करते मेरे लोचन विह्वल हों, श्रीवृन्दावन के महिमा-सुधा-समुद्र में मेरी बुद्धि मज्जन करे । सान्द्रानन्द प्रवाह में विभोर होकर मेरा शरीर श्रीवृन्दावन की भूमि पर लुण्ठन करे । अहो श्रीवृन्दावनवासी सर्व जीवों के चरणों में जस से इतस्ततः दण्डवत् प्रणाम कर सकूं ॥१४॥



यत्र क्रीडन्ति कृष्णप्रियसखिसुबलाद्यद्भुताभीरबाला
मोदन्ते यत्र राधारतिमयललिताद्युज्ज्वलश्रीकिशोर्यः ।
आश्चर्यानङ्गरङ्गैरहह निशि दिवा खेलनासक्तराधा-
कृष्णौ रत्येकतृष्णौ मम समुदयतां श्रीलवृन्दावनं तत् ॥१.१५॥
जहां श्रीकृष्ण के प्रिय सखा सुबलादि अद्भुत अद्भुत गोपबालक क्रीड़ा करते हैं, जहां श्रीराधा प्रति रतिशालिनी ललितादि उज्ज्वल-रस-विशिष्टा श्रीकिशोरीवृन्द आनन्दित हो रही हैं, दिन रात आश्चर्य अनङ्ग-रङ्ग में खेलनपरायण रति में ही एक मात्र तृष्णायुक्त श्रीराधाकृष्ण उसी श्रीवृन्दावन को मेरे हृदय में सुप्रकाशित करें ॥१५॥



यहां कई सूत्र मिलते हैं जो सरस्वतीपाद के अत्यन्त हृद्य हैं । एक, वह कभी धामवासिओं को प्राकृत नहीं मानता । बृजवासी प्राणीमात्र ही साक्षात् भगवत्स्वरूप हैं । यही बात बार बार कहेंगे, आगे देखेंगे । दूसरी बात है सर्वेन्द्रियों द्वारा वृन्दावन और युगलसरकार की सेवा । एक मिनट जैसे अन्यत्र आविष्ट न हो । आंख वृन्दावन का सौन्दर्य देखें, फूलों का मनोमोहक महक सूंघे । ऐसे आस्वादन के द्वारा भगवत्सेवा भक्तिमार्ग का वैशिष्ट्य है । वृन्दावन धाम का यह स्वरूप सेवार्थ हम उसका स्वाभाविक सौन्दर्यादि प्रकट कराने के व्रती हैं । और तीसरे श्लोक में, प्रबोधनन्द सरस्वती पाद साक्षात् दिव्य राधा-कृष्ण लीला दर्शन पाते हैं, जिसका नैरन्तर्य आधुनिक मायामय दृश्यों के पीछे छिपता है ।

जै श्री राधे श्याम !!

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