Sunday, May 30, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.१९-२१


श्रीराधिकामदनमोहन्केलिकुञ्ज-
पुञ्जैर्वृतद्रुमलताघनरत्नभूमि ।
आनन्दमत्तमृगपक्षीकुलाकुलं श्री-
वृन्दावनं हरति कस्य हठान् न चेत: ॥
श्रीराधामदनमोहन के केलि-कुंज समूह से आकीर्ण घन-घन वृक्ष-लताओं से परिवेष्टित रत्न-भूमि-युक्त एवं आनन्द-मत्त पशु-पक्षियों से आकुलित, यह श्रीवृन्दावन बलपूर्वक किस का चित्त हरण नहीं करता ? ॥१९॥



कस्यापि दिव्यरतिमन्मथकोटिरूप-
धामद्वयस्य कनकासितरत्नभासम् ।
अत्यद्भुतैर्मदनकेलिविलासवृन्दै-
र्वृन्दावनं मधुरिमाम्बुधिमग्नमीक्षे ॥
किसी दिव्य कोटि कोटि रति-कामदेव रूप विशिष्ट अनिर्वचनीय विग्रह युगल की, अर्थात् श्री राधा कृष्ण की, स्वर्ण नील ज्योति से उद्भासित, अतीव अद्भुत काम-केलि-विलासादि के माधुर्य सागर में निमग्न श्री-वृन्दावन के दर्शनों की मैं इच्छा करता हूं ॥२०॥



गाढासक्तिमतामपीह विषयेष्वत्यन्तनिर्वेदतो
दृक्पातेऽप्यसहिष्णुतातिशयिनां योगे समुद्योगिनाम् ।
ब्रह्मानन्दरसैकलीनमनसां गोविन्दपादाम्बुज-
द्वन्द्वाविष्टधियां च मोहनमिदं वृन्दावनं स्वैर्गुणैः ॥
इस संसार के विषयों में गाढ़ आसक्ति युक्त पुरुषों के मन को, परम वैराग्य के कारण जो पुरुष इन विषयों पर दृष्टिपात करने में ही अत्यन्त असहिष्णु हैं, उनके मन को, योग मार्ग में सम्यक् प्रकार उद्योगी जनों के मन को, केवल मात्र ब्रह्मानन्द रस में मग्न चित्त व्यक्तियों के मन को, और फिर श्री गोविन्द चरणारविन्द में आविष्ट चित्त भक्त वृन्दों के भी मन को, यह श्रीवृन्दावन अपने गुण समूह से मोहित किये रखता है ॥१.२१॥


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