Saturday, May 29, 2010

वृन्दावन-महिमामृत १.१६-१८

आज दुख की खबर प्राप्त करके में श्री गिरि गोवर्धन की दुश्चिन्ता में डुब गया हूं । कलि युग दैनोंदिन प्रभावशाली होता चलता है, और लोग समझते हैं प्रगति । अन्धं तमः प्रविशन्ति हुई अवस्था । गोवर्धन की चारों ओर गाल्फ कोर्स, लक्शरी कांडो इत्यादि बनाते रहते हैं डिल्ली शहर के बुजुर्गों के लिये, और साधु-संन्यासी, तीर्थ-यात्री, आध्यात्मिक-चेतना सम्पन्न लोगों का भावमय परिवेश सब बरबाद कर देते हैं ।

कलियुग का हाथी हुआ कार गाड़ी । वह इतना बड़ा राजा बन गया बैठा कि उनके लिये आम मानुष के खेती-घर-दुकान सब नुकसान दिया जा सकता हैं, लेकिन राजा का सड़क निर्माण करना ही है । मार्ग प्रशस्त करना ही है ।

हम तो विकास का विरोध नहीं करते हैं, लेकिन प्रगति के नाम पर ऐतिह्यपूर्ण तीर्थ-स्थानों की मूल-सम्पत्ति—उन का भक्ति स्मरण और ध्यान के द्वारा गठित गाढ़ आध्यात्मिक परिवेश—का सर्वनाश करना कलियुग के करतूत के सिवा और कुछ नहीं ।


अच्छा, चलिये, भाइओ बहनें ! श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती के दिव्यदृष्ट ब्रजधाम में प्रवेश करके उसी रसामृत में नहाके स्वात्मा को तनिक शीतल करें--



स्वच्छं स्वच्छन्दमेवास्त्यतिमधुररसनिर्झरादम्बु तातुं
भोक्तुं स्वादूनि कामं सकलतरुतले शीर्णपर्णानि सन्ति ।
कामं निःशीतवातं विमलगिरिगुहाद्यस्ति निर्भाति वस्तुं
श्रीवृन्दारण्यमेतत् तदपि यदि जिहासामि हा हा हतोऽस्मि ॥१.१६॥
स्वच्छन्द पान करने के लिए स्रोतों का स्वच्छ एवं अति मधुर-रस-विशिष्ट जल है, यथेच्छ भोजन के लिए समस्त वृक्षों के नीचे सुस्वादु शीर्ण सूखे पत्र विद्यमान हैं, यथेष्ट उष्ण एवं निर्वात विमल गिरि गुफाएं हैं, यह श्रीवृन्दावन सर्वथा वास करने के उपयोगी प्रतीत होता है, तथापि हाय, यदि इसे त्याग करूं, तो मैं अत्यन्त मन्दभाग्य हूं ॥१६॥


महाप्रेमाम्भोधेर्यदनुपमसारं यदमलं
हरिप्रेमाम्भोधेः मधुरमधुरं द्वीपवलयम् ।
मुनीन्द्राणां वृन्दैः कलितरसवृन्दावनमहो
तदेतद्देहान्तावधि समधिवासं दिशतु मे ॥१.१७॥
महाप्रेम-समुद्र की जो अनुपम विमल सार वस्तु है, जो श्रीहरि के प्रेमसागर का अति मधुर द्वीप-भूषण सदृश है, एवं जो श्रेष्ठ मुनिगणों द्वारा आस्वादित रससमूह का आधार स्वरूप है, वह श्रीवृन्दावन मृत्युकाल पर्यन्त मुझे सम्यक् प्रकार से आश्रय दान करे ॥१७॥



वापीकूपतडागकोटिभिरहो दिव्यामृताभिर्युतं
दिव्योद्यत्फलपुष्पबाटिकमनन्ताश्चर्यवल्लीद्रुमम् ।
द्वियानन्तपतन्मृगं वनभुवां शोभाभिरत्यद्भुतं
दिव्यानेकनिकुञ्जमञ्जुलतरं ध्यायामि वृन्दावनम् ॥१.१८॥
दिव्य जल से पूर्ण कोटि कोटि सरोवर, कूप एवं तडागों से जो युक्त है, दिव्य दिव्य फल एवं पुष्प बाटिकाओं से जो मण्डित है, अनन्त चमत्कारकारी वृक्ष-लताओं से जो समाकीर्ण है, जहां असंख्य दिव्य दिव्य पशु इधर-उधर धावमान हैं, जो ब्रज भूमि की विचित्र शोभा से समुद्भासित है, एवं जो अगणित दिव्य मनोहर निकुंज से परिशोभित है, ऐसे श्रीवृन्दावन का मैं ध्यान करता हूं ॥१८॥


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