सारस्फारचमत्कृतिं हरिरसोत्कर्षस्य काष्ठां पराम् ।
दिव्यं स्वाद्यरसैकरम्यसुभगाशेषं न शेषादिभिः
सेशैर्गम्यगुणौघपारमनिशं संस्तौमि वृन्दावनम् ॥१.४॥
जो स्थान श्री राधाकृष्ण के विलास सौभाग्य से पूर्ण चमत्कारित्व-जनक है,
जो स्थान महा माधुर्य का सार होने के कारण अतीव विस्मयकर है,
जो स्थान श्रीहरि के शरीर-रूप रस की पराकाष्ठा का प्रतिपादक है,
अप्राकृत एवं आस्वादनीय मुख्य उज्ज्वल रस के
अशेष सौभाग्य से गौरवान्वित है,
(अथवा उन्नत उज्ज्वल रस के द्वारा ही जो अशेष-भाव से
एक-मात्र रमणीय एवं सौभाग्य मण्डित है),
ईश्वर सहित शेषादि देवता-गण पर्यन्त जिस की गुणराशि का
वर्णन करते हुए पार नहीं पा सकते,
ऐसे श्री-वृन्दावन की मैं निशि दिन सम्यक् प्रकार से स्तुति करता हूं ॥४॥
देहस्यास्य समर्पणेन सुदृढप्रेमा समास्थीयताम् ।
राधाजानिरुपास्यतां स्थिरचरप्राणीह सन्तोष्यतां
श्रीवृन्दावनमेव सर्वपरमं सर्वात्मनाश्रीयताम् ॥१.५॥
प्रेमोत्कण्ठा से श्री वृन्दावन की चिन्ता कर,
विलुण्ठन के लिये सर्वांगों का नियोग कर,
इस भौतिक देह को समर्पण कर
सुदृढ प्रेम के समाश्रित हो,
श्रीराधा-नागर की उपासना कर
श्री-धाम के स्थावर-जङ्गम प्राणि मात्र को सन्तुष्ट कर,
इसी प्रकार सर्व-श्रेष्ठ श्री-वृन्दावन का ही
काय-मनो-वाक्य से आश्रय ग्रहण कर ॥५॥
मन्यन्ते बत शास्त्रगर्तपतिता दुस्तर्किणः किं ततः ।
नो चेद्भागवतानुभूतिपदवीं यातस् ततः किं मम
स्वात्मा वज्रसहस्रविद्ध इव न स्पन्देत वृन्दावनात् ॥१.६॥
श्री वृन्दावन की महिमा वेदान्त-समूह मुख से (मुख्य वृत्ति से)
प्रतिपादन न करें तो मेरा क्या ?
शास्त्र-रूप गर्त में गिरे हुए कुतार्किक गण यदि श्री-वृन्दावन का सम्मान न करें,
तो इससे मेरी हानि क्या ?
एवं इस श्रीधाम का माहात्म्य भगवद्-भक्तों के अनुभव गोचर न हो,
तो भी मेरा क्या ?
किन्तु मेरा शरीर सहस्र वज्रों के द्वारा छेदित भेदित सा होकर भी
श्रीवृन्दावन से अन्यत्र किञ्चित् मात्र भी चालित न हो ॥६॥
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