वृंदावन की विधवाओं की व्यथा है बिलव्ड डॉटर
आगरा (DJ Jul 15, 2008)। नेल्सन एटकिंस म्यूजियम कन्सास (अमेरिका) में हाल में 'बिलव्ड डॉटर' शीर्षक से लगी फोटो एग्जीबिशन भले आम लोगों को महज मनोरंजक लगी हो, लेकिन सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील लोगों के लिये फिल्म वाटर के बाद सबसे गंभीर साबित हुई।
विश्व की सबसे चर्चित इस आर्ट गैलरी में प्रदर्शित सभी चित्र वृंदावन की उन महिलाओं के जीवन से संबंधित हैं, जो विधवायें हैं अथवा हालातों ने उन्हें एकाकी जिंदगी जीने को कृष्ण की नगरी में ला पटका है। फोटोग्राफर और सोशल एक्टिविस्ट फजल शेख ने संरक्षण की अनिश्चितता वाली युवा महिलाओं की जीवनचर्या को 'मोक्ष' शीर्षक से कैमराबन्द किया। हर चित्र उनके जीवन संघर्ष और उपेक्षा को स्पष्ट करने वाला था। प्रदर्शनी के सबसे आकर्षक और चर्चित 'लाड़ली' शीर्षक से प्रदर्शित चित्र उन मासूम कन्याओं के हैं, जिनके हाथों में गुड्डे-गुड़िया होने चाहिये, लेकिन वैधव्य उन पर कहर बनकर टूटा।
इस प्रदर्शनी से धर्मस्थलों में विधवाओं की स्थिति उजागर होती है, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं और सरकारी प्रोपेगंडे से अब काफी सुरक्षित मानी जा रही थीं। आयोजक एप्रिल एम.वाटसन एग्जिबिट क्यूरेटर के रूप में विषय वस्तु की गंभीरता से परिचित थे, शायद तभी आयोजन से पूर्व उन्होंने फजल शेख की शोहरत और विश्वसनीयता के बावजूद महिला मामलों के सक्रिय ग्रुपों के साथ खुलकर चर्चा कर प्रिव्यू के आंकलन के जरिए उनकी भी सहमति ली थी।
वृंदावन की विधवाओं का सर्वे करने का निर्देश
(Hindustan, n.d.) सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रीय महिला आयोग को निर्देश दिया है कि वह वृंदावन में विधवाओंका सर्वेक्षण कर और पता लगाया कि ये महिलाएं कहां से आईं है, पारिवारिक पृष्ठभूमि क्या है और इनकी उम्र क्या है। सव्रे की यह रिपोर्ट आयोग तीन माह में कोर्ट को देगा।ड्ढr मुख्य न्यायाधीश जस्टिस केाी बालाकृष्णन और पी सथाशिवम की खंडपीठ ने यह आदेश सोसायटी फार इनवारनमेंट प्रोटेक्टशन की याचिका पर दिया। याचिका में वृंदा्रवन में विधवाओं को बुरी हालत से निकालने और उनके पुनर्वास करने का आग्रह किया है। याचिकार्ता रविंद्र बाना के अनुसार वृंदावन में लगभग 20 हाार विधवाएं हैं जो दाने-दाने को मोहताज हैं, पेट भरने के लिए भीख मांग रही हैं। उन्हें मंदिरों के आगे भजन गाने पर एक रुपया प्रतिदिन मिलता है। याचिकाकर्ता ने कहा कि ऐसी सूचनाएं भी हैं कि इन विधवाओं को दैहिक शोषण होता है। याचिका के जवाब में उत्तर प्रदेश सरकार ने कहा कि अधिकतर विधवाएं पश्चिम बंगाल और उड़ीसा की हैं। उत्तर प्रदेश राज्य की विधवाओं को राज्य सरकार पेंशन दे रही हैं।
पहचान के संघर्ष से आत्मनिर्भरता की ओर
उमाशंकर मिश्र
मथुरा (Tuesday, July 7, 2009) सामाजिक तौर पर बहिष्कृत, अनवरत मानसिक यंत्रणा का दंश झेल रही और गलियों में भीख मांगकर दो वक्त की रोटी जुटाने वाली वृंदावन की विधवा महिलाओं को कई बार शारीरिक शोषण का भी शिकार होना पड़ता है, इस सामाजिक निष्ठुरता एवं सरकारी उपेक्षा के बीच इन महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाकर उनमें जीवन के प्रति सम्मान एवं उत्साह जगाने की कोशिश की जा रही है।
समाज से परित्यक्त और सरकारी उपेक्षा की शिकार वृंदावन में रहने वाली करीब 10 हजार विधवा महिलाओं के दुख और मानसिक यंत्रणा की कहानियों को सैकड़ों पत्रकारों और फिल्मकारों ने कई बार उकेरा है। अब तो मीडिया संस्थान के संपादकीय विभागों में बैठे प्रबुद्ध संपादकों को भी अब यह विषय घिसा-पिटा सा जान पड़ता है, लेकिन इन महिलाओं की दुखद दास्तान से हटकर उनके सशक्तिकरण और मनोबल को ऊंचा उठाने को लेकर भी प्रयास किये जा रहे हैं। दि गिल्ड फॉर सर्विसेज की अध्यक्ष वी. मोहिनी गिरी और “युनाईटेड नेशन्स डेव्लपमेंट फंड फॉर वुमेन” (यूनीफेम) मिलकर इस काम के लिए धन जुटाने हेतु एक फोटो प्रदर्शनी आयोजन कर रही हैं।
“Lonely Images, Lasting Impressions-A Journey of the Widows of Vrindavan and Varanasi” की थीम पर आधारित इस प्रदर्शनी में देश विदेश के अनेक फोटोग्राफर्स इन असहाय महिलाओं की व्यथा को अपने कैमरे में कैद कर दुनिया को उससे रूबरू करा रहे हैं।
बकौल मोहिनी गिरी- “यह प्रयास इन महिलाओं की दुखद परिस्थितियों पर फिल्म बनाकर परोसने की बजाय उन्हें एक सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रेरित करेगा।”
हर तरफ से ठुकराई जा चुकी इन महिलाओं की जिंदगी उत्साहविहीन और नीरस बन जाती है। दो वक्त की रोटी के लिए भीख मांगना और हरि भजन कर समय बिताना वृंदावन में रहने वाली विधवा महिलाओं की दिनचर्या का हिस्सा होता है। नितांत अकेलेपन के बीच न कोई आत्मसम्मान का भाव, न जीवन के प्रति कोई लगाव और न ही कुछ नया करने का उत्साह, बहते पानी की तरह इन महिलाओं की जिंदगी होती है, जहां ढाल मिला बहते चल दिये। ये महिलाएं सिर्फ फिल्मकारों की पटकथा की विषयवस्तु बन कर न रह जायें इसके लिए इन्हें विभिन्न प्रकार की व्यावसायिक गतिविधियों से जोड़ने की तैयारी की जा रही है।
मोहिनी गिरी के मुताबिक- “इन महिलाओं को आर्थिक तौर पर आत्मनिर्भर और मानसिक तौर पर लचीला बनाने के लिहाज से नर्सिंग, सिलाई, आचार, पापड़, साबूदाना, धूपबत्ती, दोने और धार्मिक पोशाकें बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है।”
आगे वे कहती हैं कि, “आज ऐसी असहाय महिलाओं की संख्या निरंतर बढ़ रही है तो सिर्फ व्यवस्था को कोसने से काम नहीं चलेगा, बल्कि परंपरागत सोच से ऊपर उठकर काम करना होगा।”
सफेद धोती में लिपटी इन महिलाओं के कंठ से निकलने वाली आवाज और टकटकी लगाकर निहारती आंखों में तैरता पानी इनकी पीड़ा की कहानी कहता है। सब कुछ ठीक रहा तो अब शायद ऐसा नहीं रहेगा। कॉटेज इंडस्ट्री आधारित प्रशिक्षण, हैल्थकेयर, साक्षरता और सुरक्षित वातावरण से अब इन महिलाओं के आर्थिक एवं सामाजिक सशक्तिकरण की राह प्रशस्त हो रही है।
वृंदावन में गिल्ड ऑफ सर्विस के एक नये प्रकल्प मॉं धाम में इसी तरह की 120 असहाय विधवा महिलाएं रह रही हैं। भोजन एवं आवास जैसी मूलभूत सुविधाओं के अलावा मॉं धाम में इन महिलाओं की जीवन में गुणात्मक सुधार हेतु कैपेसिटी बिल्डिंग कार्यक्रम भी चलाये जाते हैं। वोकेशनल ट्रेनिंग सेंटर, डेयरी फार्म, तुलसी फार्म और हल्दी की खेती भी गिल्ड की कार्यसूची में शामिल है।
यह शर्म की बात है कि इन महिलाओं की ओर समाज और सरकार किसी का ध्यान नहीं जाता। राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा 1998 में किए गए एक सर्वे के मुताबिक वृंदावन की गलियों में 10 से भी अधिक विधवा महिलाएं रह रही हैं, जिन्हें बहिष्कृत जीवन जीने के साथ साथ शारीरिक शोषण का भी दंश झेलना पड़ता है। यही नहीं जीवन यापन के लिए उन्हें भजन गाकर भीख मांगने के अलावा वेश्यावृत्ति के लिए भी मजबूर होना पड़ता है।
बहुत अधिक उम्र के कारण कई महिलाएं तो चलने फिरने में भी असमर्थ होती हैं। मंदिरों की नगरी कहे जाने वाले वृंदावन की गलियों में देश-दुनिया से मन और आत्मा की शांति की आस लिए हजारों लोग आतें हैं, अपने प्रिय श्रीकृष्ण की स्तुति में मंत्रों का जाप और स्तुति गायन करते हैं और अंतत: आश्चर्यचकित निगाहों से इन विधवाओं को ताकते हुए वापस लौट जाते हैं। यह सिलसिला निरंतर कई वर्षों से चलता आ रहा है। हालांकि वृंदावन की विधवाओं की नीरस जिंदगी को जीवनपर्यन्त भीख और दर-दर की ठोकरों से बचाने की गिल्ड ऑफ सर्विस की कवायद आशा की एक नई किरण जान पड़ती है।
महिला आयोग को चिंता नहीं मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की
नई दिल्ली [माला दीक्षित] (DJ, April 11, 2010)। राष्ट्रीय महिला आयोग देश में महिलाओं की दशा को लेकर कितना चिंतित है, इसकी एक बानगी देखिए। डेढ़ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने आयोग से मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की समस्याओं पर सर्वे करके तीन माह में रिपोर्ट देने को कहा था। लेकिन आयोग ने अब तक रिपोर्ट देना तो दूर अदालत में जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा। इस मसले पर केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार का रुख भी यही है। सुप्रीम कोर्ट सोमवार इस मसले पर सुनवाई करेगी।
करीब तीन साल पहले मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की हालत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी। स्वयंसेवी संगठन इन्वायरन्मेंट एण्ड कंज्यूमर प्रोटेक्शन की ओर से दाखिल इस याचिका में विधवाओं की दशा सुधारने के लिए सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी। इस मामले में अदालत ने केन्द्र और राज्य सरकार के अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग को भी पक्षकार बनाया था। अदालत ने 14 नवंबर 2008 को आयोग से मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की समस्या पर समग्र सर्वे करके तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा था।
इसके बाद मामले से संबंधित कई पेशियां हुई लेकिन सुप्रीम कोर्ट से चंद मीटर के फासले पर मौजूद आयोग से कोई पेश तक नहीं हुआ, रिपोर्ट देने की बात तो दूर की है। मामले की आफिस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि महिला आयोग और केन्द्र सरकार को कारण बताओ नोटिस जा चुका है। नोटिस तामील भी हुआ लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया। उत्तर प्रदेश सरकार की भी यही स्थिति है। राज्य सरकार ने भी याचिका पर अब तक जवाब देने की जेहमत नहीं उठाई। गौरतलब है कि मथुरा वृंदावन में कई हजार विधवाएं दयनीय जीवन जी रही हैं। इनके पास रहने और खाने का साधन तक नहीं है।
मथुरा वृंदावन की विधवाओं की दशा पर सर्वे पूरा: आयोग
नई दिल्ली, (जागरण ब्यूरो, April 12, 2010)। रात दिन महिलाओं की फिक्र में लगे राष्ट्रीय महिला आयोग को मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की दशा का सर्वे करने में डेढ़ साल लग गए। लेकिन सुप्रीमकोर्ट में रिपोर्ट अभी भी दाखिल नहीं हुई है। आयोग ने रिपोर्ट दाखिल करने के लिए कोर्ट से दो-तीन दिन का समय और मांग लिया है।
सुप्रीमकोर्ट ने 14 नवंबर, 2008 को राष्ट्रीय महिला आयोग को विधवाओं की दशा का सर्वे कर तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा था। लेकिन इस बीच ना तो आयोग ने रिपोर्ट दाखिल की और न ही उसकी ओर से कोई वकील पेश हुआ। कोर्ट के नोटिस का जवाब तो उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार ने भी नहीं दिया है। सोमवार को यह मामला फिर से मुख्य न्यायाधीश की पीठ के सामने सुनवाई के लिए आया। विधवाओं की दयनीय दशा का मुद्दा उठाने वाले गैर सरकारी संगठन के वकील रवींद्र बाना ने कोर्ट को बताया कि इस मामले में दो साल पहले उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस जारी हुआ था। लेकिन अभी तक राज्य सरकार ने कोई जवाब दाखिल नहीं किया है। केंद्र सरकार और महिला आयोग को भी कोर्ट ने डेढ़ साल पहले नोटिस जारी किया था और आयोग से सर्वे रिपोर्ट मांगी थी पर अभी तक किसी का कोई जवाब नहीं आया है। लेकिन तभी अपर्णा भट्ट खड़ी हुई और कहा कि वह महिला आयोग की तरफ से पेश हुई हैं। आयोग ने सर्वे कर लिया है। रिपोर्ट भी लगभग तैयार है लेकिन इसे दाखिल करने के लिए दो-तीन दिन का समय दे दिया जाए। पीठ ने उनका अनुरोध स्वीकार करते हुए मामले की सुनवाई दो सप्ताह के लिए टाल दी। पीठ ने अपर्णा भट्ट से कहा कि वह रिपोर्ट की प्रति याचिकाकर्ता के वकील को भी दें।
गैर सरकारी संगठन इनवायरमेंट एंड कंस्यूमर प्रोटक्शन फाउंडेशन ने सुप्रीमकोर्ट में जनहित याचिका दाखिल कर विधवाओं की दशा सुधारने का निर्देश मांगा है, ताकि सम्मानजनक जीवन जीने के उनके मौलिक अधिकार का हनन ना हो।
मथुरा-वृन्दावन में नारकीय जीवन जीने को विवश-विधवाओं की महिला-आयोग को नहीं तनिक भी चिंता
डॉ. पुरुषोत्तम मीणा, May 1, 2010
नयी दिल्ली। मैंने अनेक बार लिखा है कि प्रत्येक संवैधानिक संस्थान तब ही हरकत में आते हैं, जबकि या तो हरकत में आने से राजनैतिक लाभ हो या पीड़ित पक्षकार कोई बड़ी हस्ती हो। अन्यथा तो आम व्यक्ति के लिये किसी के पास वक्त नहीं है। इस बात की एक बार फिर से पुष्टि हुई है। राष्ट्रीय महिला आयोग की राष्ट्रीय अध्यक्ष गिरिजा व्यास द्वारा जो पढ़ी-लिखी और ऊंचे ओहदे वाली सक्षम महिलाओं के लिये आये दिन बड़े-बड़े बयान जारी करती रहती हैं, लेकिन मथुरा-वृन्दावन में नारकीय जीवन जीने को विवश हजारों बेहाल विधवाओं की सुध लेने की उनके पास फुर्सत नहीं है। सीधा सा मामला है, कि इससे उनको किसी प्रकार की पब्लिसिटी तो मिलने से रही!
कोई डेढ़ साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया था कि राष्ट्रीय महिला आयोग मथुरा-वृन्दावन की विधवाओं की समस्याओं पर सर्वे करके तीन माह में रिपोर्ट पेश करें, लेकिन आयोग ने अब तक रिपोर्ट देना तो दूर देश की सबसे बड़ी अदालत में जवाब देना भी मुनासिब नहीं समझा। इस मसले पर केंद्र और उत्तर प्रदेश सरकार का रुख भी यही है।
करीब तीन साल पहले मथुरा-वृंदावन की विधवाओं की हालत को लेकर सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका लगाई गई थी। स्वयंसेवी संगठन इन्वायरन्मेंट एण्ड कंज्यूमर प्रोटेक्शन की ओर से दाखिल इस याचिका में विधवाओं की दशा सुधारने के लिए सरकार को निर्देश देने की मांग की गई थी। इस मामले में अदालत ने केन्द्र और राज्य सरकार के अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग को भी पक्षकार बनाया था। जिसकी सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने १४ नवंबर २००८ को आयोग से मथुरा-वृन्दावन की विधवाओं की समस्या पर समग्र सर्वे करके तीन महीने में रिपोर्ट देने को कहा था।
इसके बाद मामले में कई पेशियां हुई, लेकिन रिपोर्ट पेश करना तो दूर, सुप्रीम कोर्ट से चंद दूरी पर स्थित राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से कोई भी कोर्ट के समक्ष पेश तक नहीं हुआ! मामले की आफिस रिपोर्ट में साफ कहा गया है कि महिला आयोग और केन्द्र सरकार को कारण बताओ नोटिस जा चुका है। नोटिस तामील भी हुआ लेकिन किसी ने जवाब नहीं दिया।
उत्तर प्रदेश सरकार की भी यही स्थिति है। राज्य सरकार ने भी याचिका पर अब तक जवाब देने की जेहमत नहीं उठाई। गौरतलब है कि मथुरा-वृंदावन में कई हजार विधवाएं दयनीय जीवन जी रही हैं। इनके पास रहने और खाने का साधन तक नहीं है।
ऐसे लोगों के संवैधानिक पदों पर काबिज हो जाने के कारण देश में अव्यवस्था और वह सब होता है, जिसे कानून अपराध कहता है। यदि महिला आयोग की ही ऐसी स्थिति है तो कौन सुनेगा इन निरीह विधवाओं की? ऐसे ही हालातों में जब लोगों का गुस्सा उफान पर आता है तो समाज में आतंकवाद और नक्सलवाद पनपता है। पाठकों से मेरा आग्रह है कि जब भी महिला आयोग प्रचार पाने के लिये मीडिया में बयान जारी करें तो आम जनता को उनके विरोध में आवाज उठानी चाहिये। ताकि महिला आयोग को अहसास हो सके कि उसके आम लोगों के प्रति भी कुछ संवैधानिक दायित्व हैं
स्वर्ग की सीढ़ियों पर नरक की
अशोक बंसल
Mathura (May 1, 2010): धार्मिक भावनाओं की तुष्टि के सिलसिले में वृंदावन का नाम कुछ ज्यादा ही श्रद्धा से लिया जाता है । बंगाल में तो बहुत पहले से मान्यता रही है कि स्वर्ग के दरवाजे पर दस्तक वृंदावन में रहकर ही दी जा सकती है । वैधव्य की आपदाओं से घिरी बंगाली स्त्रियों को बाकी जीवन के लिए वृंदावन एक जैसे ताकत देता रहा है । यही कारण है कि वृंदावन में बंगाली विधवाओं की उपस्थिति एक शताब्दी से लगातार बनी हुई है । ये विधवाऐं यहॉं स्वर्ग की आस लिए आती हैं और इसी आस के सहारे सारा जीवन नारकीय यातनाओं को भोगते गुजार देती हैं । इन अनपढ़, सीधी-सच्ची और दुखी औरतौं को इस बात का तनिक आभास नहीं होता कि उनकी वर्तमान हालत पुराने जन्मों के पापों का फल न होकर सुनयोजित ढंग से धर्म के नाम पर खड़े किए गए आडबंर के कारण है । वृंदावन में बंगाली विधवाओं की स्थिति एक बार जाल में फंसने के बाद कभी न निकलने वाली मछली की मानिद है ।
घटती-बढ़ती तकरीबन तीन हजार की गिनती में हमेशा बने रहने वाली विधवाओं के दुख-दर्द की कहानी वृंदावन के एक आश्रम से प्रत्यक्ष रुप से जुड़ी है । वृंदावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोरिया नाम के सेठ ने की थी । ‘भगवान भजनाश्रम’ नाम के इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों को अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी । विधवाओं के नाम पर आने वाली दान की रकम कीे नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए भजनाश्रम का अरबों का बना दिया है । वृंदावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाऐं जड़ जमा चुकी हैं ा चित्रकूट के पास नवद्वीप और बंबई में भी आश्रम की अथाह संपति है । दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए ।
आठ घंटे मजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल और एक रुपए की आश्रम मुद्रा की मुद्रा मिलती है ।
इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है । सतरह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढ़ाई सौ ग्राम चावल पेट में झोंक कर जिंदा रहतीं हैं और एक रुपया बचा लेती हैं । सेवा कुंज, मदन मोहन का घेरा और गोविंद जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात, आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयां अपनी अमूल्य निधि ‘एक रुपए’ को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ़ पाती । वे आश्रम के बाबूओं के पास ब्याज के लालच में इस रकम को जमा कराती रहती हैं । बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने बाद उसका धन भी छूट जाता है । अनेक बाइयां वृंदावन पलायन करते समय साथ में लाई हुई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं । शाम के वक्त वृंदावन में मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है । इस भिक्षावृति के पीछे संचय की प्रवृति भी है ।
बाईयॉं सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती है तो रास्ते में पड़े झूठे पत्ते उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते । अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं । बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताड़ित करने से पीछे नहीं रहते । एक बार एक बुढ़िया बाई को आश्रम की सीढ़ियों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी । रक्तरंजित बाई मिन्नतों और गिड़गिड़ाने के बाद भी आश्रम में प्रवेश न पा सकी। उस दिन उसे बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ा । अमानवीयता और अत्याचार की मिलीजुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आंतक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है । आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, झूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है । इसके लिए उसे अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता । ‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दवाएं बनती हैं । दवाओं के कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है ।
समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए के हिसाब से भेज रहे हैं । इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृंदावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं ा कंबल, रजाई आदि बांटने के लिए दे जाते हैं । बीस साल से वृंदावन में रह रही दो बाइयों ने बताया कि उन्हें आज तक कोई रजाई या कंबल नहीं दिया गया । वृंदावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है । साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं । आयोजक घड़े लेकर रासलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं । कहते हैं करीब तीस-चालीस हजार की रकम रोजाना इकट्ठी हो जाती है । फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और भी हैं-- खेतावत भवन और वैश्य भवन । इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं ।
एक धर्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं है । महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है । लेकिन वृंदावन की बाइयों के हक की आवाज उठाने की सुध् किसी को नहीं । वृंदावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं । सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशापर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं ।
भगवान के दरबार में लाचार महिलाएं
कोलकाता (Prabhata khabar, May 22, 2010): बंगाल में चैतन्य महाप्रभु की नगरी नवद्वीप हो या उत्तरप्रदेश में कृष्ण की नगरी वृंदावन, वाराणसी या मथुरा हो. मंदिरों व आश्रमों में सफ़ेद साड़ी में लिपटी विधवाएं भजन-कीर्तन करतीं कृष्ण भक्ति में रमी दिखायी देती हैं. पर, हकीकत यह है कि भक्ति से ज्यादा जीने की मजबूरी उन्हें मंदिरों व आश्रमों का आश्रय लेने के लिए बाध्य कर देती है. हाल ही में राष्ट्रीय महिला आयोग की ओर से कराये गये एक सर्वेक्षण में खुलासा हुआ है कि वृंदावन के विभिन्न मंदिरों व आश्रमों में रह रहीं विधवा महिलाओं में से 74 फीसदी बंगाल की हैं. इन विधवाओं में उत्तरप्रदेश व उत्तराखंड की मात्र तीन फीसदी हैं.
यह वृद्ध महिला बंगाली हैं । ब्रजवासी लोग इनको गोपाल की माता नाम से पुकारते हैं । वह एक जग्गी में बसती थीं, लेकिन जाड़ों के समय कुंभ मेला की तैयारियों के दौरान, वह नष्ट हो गया और तब से वह वृंदावन की गलियों में भटकती हैं, जहां कहीं सोती हैं । यह वृद्धा भक्त ही हैं, और निरंतर गौर-निताइ कथा में समय बिताती हैं । परिक्रमा मार्ग पर दूर-दराज से आगत यात्रीओं को प्रसाद वितरण करती हैं ।
इनकी एक गोपाल मूर्ति थी, लेकिन कई महीनों के पहले वह किसी बदमाश के द्वार अपहृत हुआ । गोपाल की मा को एक देह विहीन कृष्ण मूर्ति का सिर कचरे के ढेर में मिला और उसी से समय से उनकी सेवा करती हैं । अधुना तो कई भक्त लोगों ने उनके लिये एक नया गोपाल को खरीद करके भेंट किया । गोपाल की मा आनंद विभोर हो गई ।
विशाखा दासी
2 comments:
श्री जगदानंद प्रभू जी आपका इस रिपोर्ट को पेश करने और हमे इन सबसे अवगत कराने का प्रयास सराहनीय है....
बहुत धन्यवाद....
जय जय श्री राधे श्याम
74% of widows residing at Vrindavan are from West Bengal , why their govt is sleeping ........... How the people of West Bengal have become so cruel to their sisters , mothers, relatives ......... they are blots on the humanity
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