Tuesday, May 25, 2010

श्री-वृन्दावन-महिमामृतम्


भक्तों के प्रीत्यर्थे हम श्रीराधाचरणाम्बुज-द्वन्द्व-गत-सर्वस्व संन्यासि-प्रवर श्री प्रबोधानन्द सरस्वतीपाद के द्वारा विरचित श्री वृन्दावन-महिमामृत नामक स्तुति काव्य के माधुर्यरस सिञ्चित श्लोक परिवेशन करने का प्रयास करते हैं । प्रतिदिन आस्वादन करके धन्य होइये ।

जय राधे ! जय श्याम ! जय श्री वृन्दावन धाम !




श्री-श्री-प्रबोधानन्द-सरस्वती-विरचितं

श्री-वृन्दावन-महिमामृतम्


(१)

प्रथमं शतकम्


श्री-राधा-मुरली-मनोहर-पदाम्भोजं सदा भावयन्
श्री-चैतन्य-महाप्रभोः पद-रजः स्वात्मानम् एवार्पयन् ।
श्रीमद्-भागवतोत्तमान् गुण-निधीन् अत्यादरादानमन्
श्री-वृन्दावन-दिव्य-वैभवम् अहं स्तोतुं मुदा प्रारभे ॥१.१॥

श्री राधा तथा श्री मुरली मनोहर के चरणारविन्दों का निरन्तर ध्यान-स्मरण करता हुआ, श्री-कृष्ण चैतन्य महाप्रभू की चरण-रज में आत्म-समर्पण कर एवं कल्याण गुण सागर भक्त-शिरोमणि वृन्द के चरण-कमलों में अतिशय आदर सहित बारम्बार प्रणम कर आनन्द पूर्वक मैं श्री-वृन्दावन के दिव्य चिन्मय वैभव की स्तुति करने में प्रवृत्त हूं ॥१॥

ईशोऽपि यस्य महिमामृत-वारि-राशेः
पारं प्रयातुम् अनलम्बत तत्र केऽन्ये ।
किन्त्वल्पम् अप्यहम् अति-प्रणयाद्विगाह्य
स्यां धन्य-धन्य इति मे समुपक्रमोऽयम् ॥१.२॥

जिस श्री-वृन्दावन के महिमामृत समुद्र के पार जाने में स्वयं ईश्वर भी असमर्थ हैं, फिर इस काम के लिये और कौन साहस कर सकता है ? किन्तु अत्यन्त प्रीति-पूर्वक मैं इस समुद्र में यत् किञ्चित् अवगाहन कर भी धन्य-धन्य हो जाऊंगा, इस लिए ही मेरी यह चेष्टा है ॥२॥

श्रीमद्वृन्दाटवि मम हृदि स्फोरयात्मस्वरूपम्
अत्याश्चर्य-प्रकृति-परमानन्द-विद्या-रहस्यम् ।
पूर्ण-ब्रह्मामृतमपि ह्रिया वाभिधातुं न नेति
ब्रूते यत्रोपनिषद इहात्रत्या वार्ता कुतस्त्या ॥१.३॥

हे श्रीमद् वृन्दाटवि ! अति आश्चर्यजनक स्वाभाविक परमानन्द-विद्या-रहस्य-युक्त जो आपका स्वरूप है, उसकी स्फूर्ति मेरे हृदय में कराओ । पूर्ण ब्रह्मामृत के ही वर्णन करने में लज्जित होकर जब उपनिषद् नेति नेति पुकार रही हैं, तब इस वृन्दावन की महिमा विषय में और क्या कहा जाये ? ॥३॥

No comments: