न लब्धुमिह शक्यते यदनु माधुरीमप्यहो ।
तमप्यनुभवेन् महारसनिधिं यदावासत-
स्तदेव परमं मम स्फुरतु धाम वृन्दावनम् ॥
चिर काल पर्यन्त उपनिषत् के वाक्यों के तात्पर्य का विचार करने पर भी, हाय ! अणुमात्र भी जिस माधुरी की प्राप्ति नहीं हो सकती, परं तु श्रीवृन्दावन में वास करने से ही उसी माधुरी के समुद्र का आस्वादन मिलता है, ऐसा सर्वोत्कृष्ट श्रीधाम वृन्दावन मेरे चित्त में स्फुरित हो ॥१.२२॥
क्षुत्तृट्शीतादिबाधाशतमपि सततं धैर्यमालाम्ब्य सोढ्वा ।
मुञ्चन् शोकाश्रुधारामतिकरुणगिरा राधिकाकृष्णनामा-
न्युद्गायन् कर्हि वृन्दावनमतिविकलोऽकिञ्चनः संचरामि ॥
शत-शत पाद प्रहारों को एवं कोटि-कोटि धिक्कारों को भी सहन करता हुआ, धैर्य पूर्वक निरंतर क्षुधा, तृष्णा, तथा शीत-ग्रीष्मादि के सैकड़ों विघ्न-बाधाओं को अतिक्रम करके भी, मैं कब शोकाश्रु-धारा प्रवाहित करते करते श्री-राधिका कृष्ण की नामावलि को अत्यन्त करुण ध्वनि से उच्चस्वर में गान करता हुआ, अति व्याकुल चित्त से अकिञ्चन होकर श्रीवृन्दावन में इधर-उधर विचरण करूंगा ? ॥१.२३॥
सर्वे भोगा यान्ति तत्र स्थितेऽपि ।
तस्माद्सौख्याभास उच्चैर्विभाति
नित्यानन्दे नन्द वृन्दावनान्तः ॥
आज किंवा कल ही इस कुत्सित देह का पात होगा, और शरीर रहते हुए भी शीघ्र ही समस्त भोग समाप्त हो जायेंगे । अत एव यह स्पष्ट ही प्रतीत होता है कि पार्थिव वस्तुओं में सुख का आभास मात्र है । इस लिए नित्यानन्ददायी श्रीवृन्दावन में ही आनन्द लाभ कर ॥१.२४॥
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