प्रोदञ्चत्पिकपञ्चमं प्रविलसद्वंशीसुसङ्गीतकं
शाखाखण्डशिखण्डिताण्डवकलं प्रोल्लासिवल्लीद्रुमम् ।
भ्राजन्मञ्जुनिकुञ्जकं खगकुलैश् चित्रं विचित्रं मृगै-
र्नानादिव्यसरःसरिद्गिरिवरं ध्यायामि वृन्दावनम् ॥१.७॥
जिस धाम में कोकिलाएं उदात्त ऊंची पञ्चम स्वर में आलाप करती हैं,
वंशी की सुमोहन तान के साथ जिस स्थल पर सुमधुर संगीत श्रुति-गोचर होता है,
जिस धाम के प्रति वृक्ष की शाखाओं पर मयूरों की ताण्डव नृत्य सहित अस्फुट मधुर ध्वनि होती है,
जहां के लता एवं वृक्ष समूह फल-फूलों से उल्लसित हो रहे हैं,
जो धाम मञ्जुल निकुंजों से सुशोभित है,
जहां नाना प्रकार के विहङ्ग कुल एवं पशु विहरते हैं,
तथा नानाविध दिव्य सरोवर एवं नदियां पर्वताकीर्ण हैं,
ऐसे श्रीवृन्दावन धाम का मैं ध्यान करता हूं ॥७॥
श्रीवैकुण्ठद्वारकाजन्मभूमिः ।
कृष्णस्याथो गोष्ठवृन्दावनं तत्
गोप्याक्रीडं धाम वृन्दावनान्तः ॥१.८॥
स्थूल, सूक्ष्म, कारण एवं तुरीय ब्रह्म, श्रीवैकुंठ द्वारका, जन्मभूमि मथुरा, गोकुल, श्रीकृष्ण की गोचारण स्थली श्रीवृन्दावन, एवं श्रीवृन्दावन मध्यवर्ती गोपियों की क्रीडाभूमि, ये उत्तरोत्तर श्रेष्ठ हैं ॥८॥
श्रीमद्राधाकुञ्जवाटी चकास्ति ।
आद्यो भावो यो विशुद्धोऽतिपूर्णस्
तद्रूपा सा तादृशोन्मादि सर्वाः ॥१.९॥
अतिशय आश्चर्यजनक एवं परिदृश्यमान जगत् से अतीव सुन्दर श्रीराधाजी की कुंजवाटी सुशोभित है । विशुद्ध तथा पूर्णतम जो आद्य, शृङ्गाराख्य भाव है, श्रीराधाजी की कुंज वाटी तत्-स्वरूपा है, एवं उसका समस्त उपकरण उस भाव की भांति उन्मादना ही उत्पन्न करनेवाला है ॥९॥
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