Wednesday, August 4, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतं २.९७-९९



भेदत्रयरहितमस्ति ब्रह्म महानन्द सान्द्रं यत् ।
तत् सविशेषचमत्कृतिततिरिह वृन्दावने गता काष्ठाम् ॥

जिस सताजीय एवं विजातीय भेद रहित महानन्द घन ब्रह्म कहते हैं, वह इस श्रीवृन्दावन में सविशेष चमत्कार राशि की पर काष्ठा को प्राप्त हुआ है ॥२.९७॥




चिच्छक्तिसिन्धुबन्धुरमद्वयमानन्दमद्भुताकारम् ।
तद्बिन्दुयुक्चिदात्मकं स्मर तत्त्वं कुञ्जरोक्षितं सरसम् ॥

हे चिच्छक्ति समुद्र के बिन्दु युक्त चित्कण जीव तू चिच्छक्ति सागर के मनोहर और अनुपम अद्भुताकार, सरस एवं श्याम कुञ्जर के द्वार प्रेम जल से सिञ्चित वृन्दावन तत्त्व को स्मरण कर ॥२.९८॥




अपारावारकन्दर्पनवकेलिरसाम्बुधौ ।
मग्नं वृन्दावने गौरश्यामधामद्वयं भज ॥

श्रीवृन्दावन में पारावार विहीन काम नव केलि रस समुद्र में मग्न गौर श्याम विग्रह युगल का भजन कर ॥२.९९॥




इति श्रीश्रीप्रबोधानन्दसरस्वतीगोस्वामिपादविरचिते
श्रीश्रीवृन्दावनमहिमामृते
द्वितीयशतकं
॥२॥



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