Tuesday, August 24, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.५९-६१


राधाकी मानलीला (बरसाना) (Photo from Lake of Flowers).




स्त्रीपुत्रदेहगेहद्रविणादौ मैव विश्वसीर्मूढ ।
क्षणमपि नैव विचारय चारय वृन्दारण्यमुखं चरणौ ॥
हे मूर्ख! स्त्री पुत्र देह घर सम्पत्ति आदि का विश्वास मत कर, एक क्षण भी विचार न करके श्रीवृन्दावन की ओर पांव बढ़ा ॥३.५९॥




राधाकृष्णविलासरञ्जितलतासाद्मलिपद्माकर-
श्रीकालिन्द्तटीपटीरविपिनाद्यद्रीन्द्रसत्कन्दरम् ।
जीवातुर्मम नित्यसौभगचमत्कारैकधाराकरं
नित्यानङ्कुशवर्धमानपरमाश्चर्यर्द्धि वृन्दावनम् ॥
श्रीराधा-कृष्ण के विलास से रञ्जित लतागृहों एवं तडा़ों से, श्रीकालिन्दी के किनारों पर स्थित चन्दन-वनादिकों से, एवं श्रीगिरिराज की सुन्दर सुन्दर गुफाओं से जो सुशोभित है, जो एकमें सौभाग्य एवं चमत्कार की वर्षा करता है, तथा जो नित्य स्वतन्त्र रूप से वर्धनशील परम आश्चर्य की समृद्धि से पूर्ण है, ऐसा श्रीवृन्दावन मेरी जीवन औषध है ॥३.६०॥




शरीरं श्रीवृन्दावनभुवि सदा स्थापय मनः
सदा पार्श्वे वृन्दावनरसिकयोर्न्यस्य भजने ।
वचस्तत्केलीनामनवरतगाने रमय तत्
कथापीयूषादौ श्रवणयुगलं प्रीतिविकलम् ॥
शरीर को सदा श्रीवृन्दावन भूमि में स्थिर रख, मनको श्रीवृन्दावन रसिकयुगल श्रीराधा-कृष्ण के निकट भजन में लगा, उनकी लीला गान में निरन्तर वाणी का प्रयोग कर एवं प्रेम से व्याकुल कानों को उनके कथामृत से तृप्त कर ॥३.६१॥


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