Friday, August 6, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.४-६



Photo from Lake of Flowers.

वन्दे वृन्दावनगतमहं भक्तिभारावनम्रो
धन्याग्रण्यं कृमिमपि न चान्यत्र संस्थान् तृणाय ।
मन्ये ब्रह्मादिकसुरगणान् किं बहूक्त्या ममेयं
प्रौढिर्गाढा न खलु परतो भाति कृष्णोऽपि पूर्णः ॥
भक्ति पूर्वक नम्र होकर श्रीवृन्दावन के परम धन्य कृमि की भी मैं वन्दना करता हूं, किन्तु अन्यत्र रहने वाले ब्रह्मादिक देवताओं को तृण के समान भी नहीं मानता । और अधिक क्या कहूं ? मेरी यह चतुरता पूर्ण बात एकी है, क्योंकि श्रीवृन्दावन को छोड़कर श्री-कृष्ण भी तो पूर्ण रूप से प्रतिभास्त नहीं होते ॥३.४॥



वृन्दारण्ये चिदचिदखिलज्योतिराच्छादकान्ति
स्वच्छानन्तच्छविरससुधासीधुनिस्यन्दिनि त्वम् ।
सर्वानन्दास्मृतिकरमहाप्रेमसौख्यैरगाधै
राधाकृष्णानवधि विह्रतौ संवस त्यक्तसर्वः ॥
चित् ज्योति विशेष्कृतादि अप्राकृत धाम और अचित् ज्योति प्राकृत भवन देवी धामादि सब को आच्छादन कारी ज्योति वाले, एवं जिस से उज्ज्वल अनन्त ज्योति रसामृत टपक रहा है, और जो अन्य सब प्रकार के आनन्द को भुला देने वाला है, तथा जहां श्रीराधा-कृष्ण महा प्रेम सुख से अगाध अनन्य बिहार कर रहे हैं, ऐसे श्रीवृन्दावन में सब कुछ त्याग कर तू वास कर ॥३.५॥



सर्वाशर्यमुदेति यत्र सततं कन्दर्पलीलामयं
गौरश्याममहामनोहरमहोद्वन्द्वं किशोराकृतिः ।
यत् स्वान्तः प्रतिवीथिकल्पितमृजा गन्धाम्बुसेकं कदा
भ्राजन्मञ्जुनिकुञ्जपुञ्जमचलो वृन्दावनं संश्रये ॥
जहां निरन्तर कन्दर्प लीलामय सर्व आश्चर्य जनक किशोर मूर्ति गौर श्याम महामनोहर जोड़ी विराजमान है, जिस की हर एक गली में मार्जन और सुगन्धित जल का छिड़काव हो रहा है, जिससे मञ्जल निकुञ्ज समूह चमक रहा है, ऐसे श्रीवृन्दावन में कब मैं अचल निवास करूंगा ॥३.६॥


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