श्रीगोपालभट्टगोस्वामी का भजनकुटी, संकेत (Photo from Lake of Flowers).
गौरश्यामसुनागरकिशोरमिथुनं भजामः कुञ्जेषु ॥
कुञ्ज कुञ्ज में कामकेलि रङ्ग के वश परिहास्य वाक्य रचना में प्रत्युत्पन्नमति चतुर गौरश्यामवर्ण चतुर शिरोमणि श्रीयुगलकिशोर का मैं भजन करता हूं ॥३.१९॥
प्रियद्वन्द्वेत्यान्दोलितवपुषि तीव्रस्मरमदे ।
न शक्ताः श्रीवृन्दावनभुवि सुवेशादिकरणे
बलादप्यानन्दं किमपि रसयन्त्यः प्रजहसुः ॥
श्रीवृन्दावन में परस्पर कामक्रीड़ा के रस समुद्र की तरङ्गों से जिनके विग्रह झूम रहे हैं एवं जो तीव्र कामोन्मत्त हो रहे हैं, ऐसे प्रियतम युगलकिशोर को सखीगण ने बलपूर्व्क भी वेषभूषा कराने में असमर्थ होकर कोई एक अनिर्वचनीय आनन्द आस्वादन करते हुए परिहास किया ॥३.२०॥
दुर्ज्ञेयं परमोज्ज्वलन्मदरसोदारश्रियामाकरम् ।
श्रीराधामुरलीमनोहरमहाशर्यातिसंमोहनं
श्रीमूर्तिच्छविकेलिल्कौतुकभरैश्चाश्चर्यमन्तः स्मर ॥
अहो ! श्रीवृन्दावन के वैभव को शिव, ब्रह्मादि भी नहिं जान सकते, यह परम उज्ज्वल उन्मादकारी श्रेष्ठ रस की महासम्पत्ति की खान है, यह श्रीराधा-मुरलीमनोहर को भी महा आश्चर्यभाव से सम्मोहन करने वाला है एवं श्रीमूर्ति के कान्ति-केलि-कौतुक आदि के आधिक्य में भी आश्चर्यजनक है, इसका श्रीवृन्दावन का मन में स्मरण कर ॥३.२१॥
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