बरसाने का दृश्य (Photo from Lake of Flowers).
प्रकम्पः कालाहेरपि न हि न वा देहदलने ।
प्रहर्षो न ब्रह्माद्यधिकविभवे नापि परमा
मृतब्रह्मानन्दे समधिगतवृन्दावनभुवः ॥
जिन्होंने श्रीवृन्दावन भूमि को भली प्रकार प्राप्त कर लिया है, उनको सत्कर्मों के करने में या न करने में कुछ भी दुख नहीं, काले सर्प से एवं शरीर के नाश होने में भी उन्हें कुछ भय नहीं है, ब्रह्मादि से अधिक सम्पत्ति के प्राप्त होने में और परमामृत ब्रह्मानन्द की प्राप्ति में भी उनको कुछ आनन्द नहीं मिलता ॥३.४७॥
मतिशयपरितोषैर्दुष्करैर्दुस्तरैश्च ।
विदधदिव सशोको येन केनापि देह-
स्थितिमध्वस वृन्दारण्यमेकान्तरत्या ॥
अति घोर अनर्थ करने वाली इन्द्रियों को दुष्कर तथा दुस्तर उपायों से सन्तुष्ट करने का अब कोई प्रयोजन नहीं । देह यात्रा निर्वाह करने के लिये जिस किसी उपाय का अवलम्बन करके शोकातुर होते हुए एकान्त भाव से इस श्रीवृन्दावन में निवास कर ॥३.४८॥
रटन् हा कृष्णेति प्रतिपदमटंश्चापि परितः ।
त्रुटन् नानाग्रन्थिः स्फुटदमलभावोऽश्रुनिवहैर्
नटन् गायन् वृन्दावनमतिमहान् पङ्किलयति ॥
जो व्यक्ति निरन्तर रासस्थली में लुण्ठन करता है, श्रीकृष्ण के चरित्रों का पाठ करता है, हा कृष्ण रटता है, एवं श्री वृन्दावन के सर्व स्थानों पर भ्रमण करता है, उसके हृदय की नाना ग्रन्थियां – अविद्या, काम, कर्मादि – नाश होकर विशुद्ध भाव की स्फूर्ति होती है एवं वही अति भाग्यवान महापुरुष नृत्य तथा संकीर्तन करते करते अश्रुधारा से श्रीवृन्दावन को पंक युक्त कर देता है ॥३.४९॥
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