Sunday, August 15, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.३१-३४


सनातन गोस्वामिपाद का भजनकुटि (पावनसरोवर) (Photo from Lake of Flowers).



यदङ्गरुचिभिर्महाप्रणयमाधुरीवीचिभिर्
विचित्रमवलोकयन् कनकचम्पकस्फूर्तिभिः ।
विमुह्यति पदे पदे हरिरपूर्ववृन्दावने
किशोरमिदमेव मे स्फुरतु धाम राधाभिधम् ॥
जिसकी महाप्रणय माधुरी की तरङ्ग युक्त स्वर्ण चम्पकवत् देदीप्यमान अङ्गकान्ति की विचित्रता देखकर श्रीहरि अपूर्व श्रीवृन्दावन में पद पद पर विमोहित हो जाते हैं, वह श्रीराधा नामक किशोर मूर्ति मेरे में स्फुरित हो, यह मेरी प्रार्थना है ॥३.३१॥



आश्चर्याश्चर्यनित्यप्रवहदतिमहामाधुरीसाररूप-
श्रीकेलिप्रेमवैदग्ध्यतुलतरुणिमारम्भसौभाग्यपूरौ ।
तौ गौरश्यामवर्णौ सहजरतिकलालोललोलौ किशोरौ
श्रीवृन्दारण्यकुञ्जालिषु सुललितैकान्तरत्या स्मरामि ॥
जो अत्याश्चर्यमय अति महामाधुरीसार विशिष्ट रूप, शोभासौन्दर्यादि केलि प्रेमवैदग्धी अतुलनीय नवीन यौवन तथा सौभाग्यराशि को धारण कर विराजमान हैं, एवं जो सहज रतिकला के आवेश में अत्यन्त चञ्चल हो रहे हैं, उन्हीं गौरश्याम श्रीयुगलकिशोर को श्रीवृन्दावन के कुञ्जों में सुललित एकान्त रति के साथ मैं स्मरण करता हूं ॥३.३२॥



असमोर्ध्वमहाश्चर्यरूपलावण्यशेवधी ।
सदोत्तरङ्गप्रोत्तुङ्गमहानङ्गरसाम्बुधी ॥
मिथः प्रेमातिवैक्लव्यात्त्रुट्यर्धेऽप्यवियोजिनौ ।
सदोत्पुलकसर्वाङ्गौ सदा गद्गदभाषिणौ ॥
तुलनीय महाश्चर्य रूपलावण्य के समुद्र एवं नित्य उत्तङ्ग तरङ्गों के समान आकुल महाकाम-समुद्रवत् श्रीयुगलकिशोर परस्पर अतिशय प्रेम की व्याकुलता के कारण अर्ध त्रुटि अति थोड़े समय के लिये भी एक दूसरे का विरह धारण सहन नहीं कर सकते । सब अङ्गों में सदा उच्च पुलकावलि करते हैं, एवं सदा गद्गदवाक्य बोलते हैं ॥३.३३-३४॥


No comments: