राधाकुण्ड (Photo from Lake of Flowers).
यो भजेन् नित्यमेकेन भावेन तमहं भजे ॥
वे श्रीराधा-कृष्ण भजनानन्दी जनों के सब प्रकार के आनन्द रस की पराकाष्ठा को भी थुत्कार करके विराजमान हैं, जो एकान्त भाव से नित्य इन का भजन कर सकता है, मैं उसका भजन करता हूं ॥३.३८॥
ज्ज्योतिः स्वानन्दसिन्धूत्थितमधुरतरद्वीपवृन्दावनान्तः ।
श्रीराधाकृष्णतीव्रप्रणयरसभरोदञ्चरोमाञ्चपुञ्जाः
कुञ्जालिष्वात्मनाथद्वयपरिचरणव्यग्रगोपालबालाः ॥
त्रिगुण सत-रज-तम रहित पूर्ण उज्ज्वल विमल महाकामराज स्वरूप दिव्य ज्योति के स्वानन्द सागर से प्रकट हुए मधुरतर द्वीप के समान जो श्रीवृन्दावन है, उसके कुञ्जों में श्रीराधा-कृष्ण के तीव्र प्रेमरस में पूर्ण होकर पुलकित शरीर से अपने प्रियतम नाथ श्रीयुगलकिशोर की सेवामें गोप बालाएं संलग्न हैं ॥३.३९॥
श्रीमन्नासाग्रलोलन्मणिकनकलसन्मौक्तिकाश्चित्रशाटीः ।
सुश्रोणीश्चारुमध्या रुचिरकुचतटीः कञ्चुकोद्भासिहारा
लोलद्वेण्यग्रगुच्छाः स्मर कनकरुचीर्दासिका राधिकायाः ॥
जो मेखला, नूपुर, बाजुबन्द, कङ्कण एवं अनेक रत्न जटित अंगूठी आदि भूषणों से सुशोभित हैं, जिनके सुन्दर नासाग्र भाग में मणि एवं सुवर्णयुक्त मुक्ता डोलायमान हैं, परिधान में विचित्र साड़ी है, कटिदेश अति सुन्दर एवं जिन की कञ्चुकी पर चमकते हुए हारों की छटा है, वेणियों के गुच्छे आन्दोलित हो रहे हैं, ऐसी स्वर्णवर्ण विशिष्ट श्रीराधिका की दासियों को स्मरण कर ॥३.४०॥
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