Thursday, August 12, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.२२-२४


श्री पुरीदास महाशय की समाधि, राधादामोदर मन्दिर प्राङ्गण (Photo from Lake of Flowers).


वृन्दाकानन काननस्य परमाशोभा परातः परा
नन्द त्वद्गुणवृन्दमेव मधुरं येनानिशं गीयते ।
हा वृन्दावन कोटिजीवनमपि त्वत्तोऽतितुच्छं यदि
ज्ञातं तर्हि किमस्ति तत्तृणकच्छक्येत नोपेक्षितुम् ॥

हे श्रीवृन्दावन ! आपकी वनशोभा सर्वोत्कृष्ट है, हे परानन्द ! आपके मधुर गुणों को जो निशिदिन गान करता है, एवं हे वृन्दावन ! जो कोटि जीवन भी आपके लिये अतितुच्छ जानता है, फिर उसके लिये संसार में ऐसी क्या वस्तु है जिस की तृण के समान उपेक्षा वह नहीं कर सकता ? ॥३.२२॥ (यह श्लोक दोबार कहा गया है, द्वितीय शतक का २८ श्लोक देखिये ।)



श्रीवृन्दावनमण्डले यदि शिरः श्रीराधिकाकृष्णयोः
सत्प्रेमैकरसात्मनोः पदतले न्यस्याभये स्थीयते ।
तर्ह्यास्ते मम लोकतो न हि भयं नो धर्मतो नो दुर-
न्ताधिव्याधिशतात् किमन्यदखिलाधीशाच्च मे नो भयम् ॥
श्रीवृन्दावन मण्डल में एकमें सत्प्रेम के रसस्वरूप श्रीराधा-कृष्ण के अभय पदतलों में मस्तक अर्पण कर यदि अवस्थान कर सकूं तो लोकभय धर्मभय किंवा सौ सौ भयानक आधि-व्याधियों से और तो क्या अखिल ब्रह्माण्ड के अधिपति से भी मुझे कोई भय नहीं है ॥३.२३॥



श्रीराधामुरलीधरातिमधुरश्रीपाणिपादाम्बुज-
स्पर्शोज्जृम्भितपूर्णहर्षजलधावत्यन्तमग्नान्तराः ।
सौभाग्यं रमयापि मृग्यमतुलं सम्प्राप्तवत्यो महा-
भागानां शिरसि स्थिता व्रततयो नन्दन्ति वृन्दावने ॥

श्रीराधा-मुरलीधर के अति मधुर श्रीहस्त एवं चरण-कमलों के स्पर्श से जो प्रफुल्लित हो रहीं हैं, तथा जिनका चित्त पूर्ण हर्ष के समुद्र में निमग्न है, स्वयं लक्ष्मीदेवी जिस अतुलनीय सौभाग्य की वाञ्छा करती है, वही जिनको सम्यक् प्रकार से प्राप्त है, महाभाग्व्यवानों की शिरोमणि ऐसी ये लताएं श्रीवृन्दावन में आनन्द ले रही हैं ॥३.२४॥


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