प्रेमसरोवर, नन्दगांव (Photo from Lake of Flowers).
शुद्धस्वाद्यप्रीतिशक्तेर्निधानं वृन्दारण्ये यो भजेत् सोऽतिधन्यः ॥
ब्रह्मज्योति पूर्ण, आनन्दघन, आश्चर्य की सीमा श्रीराधाकृष्ण नाम धारी विशुद्ध एवं आस्वादन करने योग्य प्रीति शक्ति के बीज स्वरूप को जो श्रीवृन्दावन में भजे, वही अति धन्य है ॥३.१३॥
नवं नवमहो वहद्बहलमन्मथाडम्बरम् ।
नवं नवमहो दुहत्सुखमहाब्धिमालीदृशां
दृशाहमपि किं पिबाम्यभयधामवृन्दावने ॥
अहो ! नव नवायमान अपूर्व कैशोर देह धारण करने वाले, अनेक प्रकार के नवीन नवीन काम आडम्बर प्रकट करने वाले एवं सखियों के नेत्रों को नूतन नूतन सुख महासागर दान करने वाले, उस अभयदानकारी युगलकिशोर के मैं भी क्या इन नेत्रों के द्वारा श्रीवृन्दावन में दर्शन कर सकूंगा ? ॥३.१४॥
निकुञ्जभवने मया दयित कर्हि सेविष्यते ।
प्रसूनशयनं गतः सरभसं ममात्मेश्वरी-
सहाय उरुमन्मथक्षुभितमूर्तिरुद्यत्स्मितः ॥
हे प्रभो मदनमोहन ! हे प्यारे ! मनोहर श्रीवृन्दावन के निकुञ्ज भवन में पुष्पशय्या पर मेरी प्राणेश्वरी श्रीराधा के साथ प्रसन्न चित्त बैठे हुए प्रबल काम के द्वारा क्षुभित आकृति बाले एवं मृदु मधुर मुसकान युक्त आपकी मैं कब सेवा करूंगा ? ॥३.१५॥
No comments:
Post a Comment