Thursday, August 19, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.४४-४६


बरसाने का दृश्य (Photo from Lake of Flowers).



मुक्तिर्याति यतो बहिर्बहिरहो सम्मार्जनीघातत-
स्त्रस्तास्ता वरसिद्धयो विदधते काक्वादि यत् सेवितुम् ।
यन्नाम्नैव विदूरगापि विलयं मायापि यायादहो
तद्वृन्दावनमत्यचिन्त्यमहिमा देहान्तमाश्रीयताम् ॥
जहां से मुक्ति सन्मार्जनी बुहारी की चोट खाकर दूर से अति दूर जा पड़ती है, जिसकी सेवा करने के लिये श्रेष्ठ अष्ट सिद्धियां विनय प्रार्थआ करने में भी भयभीत होती हैं । अहो ! जिसका नाम सुनते ही माया दूर जा पड़ती है एवं नाश हो जाती है, उस अति अचिन्त्य महिमायुक्त श्रीवृन्दावन का देहपात पर्यन्त आश्रय कर ॥३.४४॥



अहो वृन्दारण्यं प्रतिपदविनिस्यन्दिपरमोन्
मदप्रेमानन्दामृतजलधिलोभाकुलयति ।
रमेशब्रह्मादीन् अथ भगवतः पार्षदवरा
नतो धीरा नीराञ्जलिमपि निपीयात्र वसत ॥
अहो ! श्रीवृन्दावन पद पद में ही परम उन्माद उत्पन्न करने वाले प्रेमानन्दसमुद्र को प्रवाहित कर रहा हैं, लक्ष्मी, शिव ब्रह्मादि को एवं शब्धगवान् के श्रेष्ठ पार्षदों को भी लालायित कर आकुल किये रखता है, अत एव हे धीर पुरुषो ! अञ्जलि भर पानी पीकर भी श्रीवृन्दावन में वास करो ॥३.४५॥



त्वयाकण्ठं पीतं यदि परमपीयूषमपि किं
ततो यद्युर्वश्याः स्तनयुगलमाश्लेषि किमतः ।
यदि ब्रह्मानन्दामृतमपि समास्वादि किमतो
यतस्थूत्कृत्येदं व्यसृजदपि वृन्दावनतृणम् ॥
यदि तुमने पेट भरकर अमृत भी पान कर लिया, तो उससे क्या ? यदि उर्वशी के स्तन युगल का तुमने आलिङ्गन कर लिया, तो क्या ? और यदि ब्रह्मानन्द् अमृत का भी भली प्रकार आस्वादन तुम्हें मिले, तो भी उससे क्या फल ? क्योंकि श्रीवृन्दावन के तो तृण ने भी इन समस्त वस्तुओं को थुत्कार कर त्याग दिया है ॥३.४६॥


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