Thursday, August 5, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.१-३

श्रील प्रबोधानन्द सरस्वती पाद विरचित

श्रीश्रीवृन्दावनमहिमामृतम्


अथ तृतीयं शतकम्


वृन्दावन-महिमामृत तृतीय-चतुर्थ-शतकों का द्वितीय संस्करण का प्राक्कथन


प्रेम पुरुषोत्तम परम पावनावतार कारुणवरुणालय भगवान् श्रीश्रीगौराङ्गसुन्दर की अतीव अनुकम्पा से, श्रीवृन्दावनमाधुर्यसार रसागार महामहिम श्रीश्रीवृन्दावनमहिमामृतग्रन्थरत्नान्तरगत तृतीय एवं चतुर्थ शतक का द्वितीय संस्करण श्रीवृन्दावनरसरसिक महानुभवों के हस्तकमलों में सहर्ष समर्पित है ।

सर्वोपनिषद् वेद-वेदान्त-प्रतिपाद्य सर्व-साधन-शिरोमणि चरमतम साध्य, सर्वैश्वर्य-माधुर्य-रस-राशि श्री-वृन्दावन-विलासि श्रीश्रीव्रजेन्द्रनन्दन-श्रीवृषभानुनन्दिनी के सर्वसुखप्रद सुकोमल सुन्दर सुचारु चरणारविन्द के मकरन्द मदोन्मत्त रसिक चञ्चरीक भागवतजनों के लिये प्रस्तुत महाद्भुत रसान्वित ग्रन्थरत्न की कितनी अपेक्षाकृत उपादेयता है, यह तो स्वयं स्वभावसिद्ध सेवारत्न श्रीभागवतजन ही अनुभव कर सकेंगे, अथवा कर ही रहे हैं ।

काशी वासी साठ हजार मायावादी शिष्यों के गुरु वर्य जिन श्रीप्रकाशानन्द सरस्वतीपाद ने कलियुगपावनावतार करुणागार भगवत् श्रीश्रीकृष्णचैतन्य के चरणकमलानुगत होकर, अपने नाम को श्रीप्रबोधानन्द सरस्वतीपाद के परिवर्तित रूप में प्राप्त करके, निर्विशेष निराकार निर्गुण ब्रह्मानुसन्धानमय मायावाद की मरुभूमि से निकलकर, सविशेष सुन्दर-साकार, समस्त दिव्यातिदिव्य कल्याण गुण-गणालङ्कृत नित्य युगल केलि रस तरङ्गायित रस समुद्र का शुभावगाहन किया, उनके जीवन की संक्षिप्त झांकी भी प्रस्तुत खण्ड में यथा पूर्व चित्रित की गई है, जिस से श्रीश्रीराधा-कृष्ण मिलित रसराज-महाभाव-स्वरूप श्रीश्रीगौराङ्गसुन्दर की ललित लीला का भी किञ्चित् आस्वादन पाठक गण कर सकेंगे । श्रीसरस्वतीपाद की उद्धारलीला का सविस्तृत वर्णन एवं तत्त्व समालोचना श्रीश्रीचैतन्यचरितामृत ग्रन्थ रत्न में द्रष्टव्य है ।

मुख जैसे साधन हीन दीन पतित अनभिज्ञ व्यक्ति के द्वारा इस सङ्कलन में अनेक त्रुटियों का रह जाना स्वाभाविक है, अतः उदारचेता विज्ञ पाठक वृन्द स्वयं ही उन्हें सुधार कर दास को अपना लेंगे ॥

वैष्णव पद रजाभिलाषी

श्यामलाल हकीम
वृन्दावन



स्वान्तर्भावविरोधिनीव्यवहृतिः सर्वा शनैस्त्यज्यतां
स्वान्तश्चिन्तिततत्त्वमेव सततं सर्वत्र सन्धीयताम् ।
तद्भावेक्षणतः सदा स्थिरचरेऽन्यादृक् तिरोभाव्यतां
वृन्दारण्यविलासिनोर्निशि दिवा दास्योत्सवे स्थीयताम् ॥
अपने आन्तरिक भाव श्रीकृष्णदास्य भाव के विरोधी सब व्यवहारों को धीरे धीरे त्याग कर, अन्तश्चिन्तित तत्त्व (सेव्य तत्त्व, श्रीराधाकृष्णतत्त्व) का ही निरन्तर सर्वत्र अनुसन्धान कर, सदा उसी भावमयी दृष्टि से स्थावर जङ्गमादि को देखते हुए अन्य प्रकार की भावनाओं का त्याग कर, श्रीवृन्दावन विलासी श्रीयुगलकिशोर की सेवा में निशिदिन तत्पर रह ॥३.१॥



प्रकृत्यन्तं तीर्त्वा प्रविश वितते ब्रह्ममहसि
स्फुरत्पश्यानैकान्तिककलितवैकुण्ठभवनम् ।
तदध्युच्चान्युच्चान्यनुसर सुधामान्यथ महो-
ज्ज्वले वृन्दारण्ये भ्रम यदि किमप्यत्र मिलति ॥
प्रकृति आवरण उल्लङ्घन कर विस्तीर्ण ब्रह्मज्योति में प्रवेश कर, फिर अनैकान्तिक, जो एकान्तिक अद्वितीय ब्रह्मवादी नहीं हैं, अर्थात् भक्त ही जिसे देख सकते हैं, उस वैकुण्ठ लोक के दर्शन कर, उस से ऊपर उच्च उच्चतर मनोहर धामों का अनुसरण कर एवं यदि किसी अनिर्वचनीय वस्तु के पाने की इच्छा हो तो सर्वोपरि महा उज्ज्वल श्री वृन्दावन में भ्रमण कर ॥३.२॥



अङ्गेऽङ्गेऽनङ्गलीलाजलनिधिरमितो माधुरीवारिधीनाम्
एकैकं तत्र कोटिः प्रतिपदमुदयत्येतदास्वादमत्तः ।
श्यामः स श्रीकिशोरः प्रतिनिमिषमहो कोटिकोटिविकारान्
धत्ते कन्दर्पदर्पात् परमरसनिधौ कानने राधिकायाः ॥
अहो! वह श्री श्यामकिशोर प्रति अङ्ग में अनन्त अनङ्ग लीला समुद्र के द्वारा आनन्दित हो रहे हैं, एवं माधुर्य समुद्र के पद-पद में हर एक अङ्ग को ही कोटि गुणा और अधिक प्रकाशित कर रहे हैं, तथा उसी आस्वादन में उन्मत्त होकर श्रीराधा का परम रस निधि रूप इस श्रीवृन्दावन में कन्दर्पदर्प दे कारण प्रति निमिष में ही कोटि कोटि विकारों को प्राप्त हो रहा हैं ॥३.३॥


3 comments:

Satya devi dasi said...
This comment has been removed by the author.
Satya devi dasi said...

http://translate.google.com/translate?hl=en&sl=hi&tl=en&u=http%3A%2F%2Fprema-prayojana.blogspot.com%2F2010%2F08%2Fblog-post_05.html

It's just not the same.

Jagadananda Das said...

I hear you. We will try to have an English version soon on another site.