Sunday, August 22, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.५३-५५


बरसाने का दृश्य (Photo from Lake of Flowers).





वृन्दावनमनुविन्दाम्यहमपि देहं श्वशूकरादीनाम् ।
न पुनः परत्र सच्चित्सुखमयमपि दुर्लभं देवैः ॥
श्रीवृन्दावन के कूकर शूकरादि का शरीर भी धारण करूंगा, किन्तु और जगह देवताओं के लिये भी दुर्लभ सच्चिदानन्दमय शरीर को मैं नहीं चाहता ॥३.५३॥




श्रीवृन्दावनमध्ये बहुदुःखेनापि यातु जन्मैतत् ।
लोकोत्तरसुखसम्पत्त्यापि न चान्यत्र मे निमिषः ॥
श्रीवृन्दावन में अत्यन्त दुखों में ही मेरा यह जन्म बीत जाये, तथापि अन्य स्थान पर अलौकिक सुख सम्पत्ति एक निमिष काल के लिये भी प्रार्थना नहीं करूंगा ॥३.५४॥




करतलकलितकपोलो गलदश्रुलोचनः कृष्ण कृष्णेति ।
विलपन् रहसि कदा स्यां वृन्दारण्येऽत्यकिञ्चनो धन्यः ॥
हथेली पर कपोल धर कर अश्रु पूर्ण नेत्रों से कृष्ण कृष्ण कहकर विलाप करते करते कब श्रीवृन्दावन के निर्जन स्थान पर अति दीनभाव से रहकर मैं कृतार्थ होऊंगा ॥३.५५॥


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