Wednesday, August 18, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.४१-४३


बरसाने का दृश्य (Photo from Lake of Flowers).



त्रिभङ्गीमुत्तुङ्गीकृतरसतरङ्गैर्नवनवो-
न्मदानङ्गे नीलोज्ज्वलघननिभाङ्गे दधदहो ।
लसद्बर्होत्तंसी मणिमयवतंसी व्रजकुला
बलानीविस्रंसी स्फुरतु मम वंशीमुखहरिः ॥

अहो ! उच्च उच्चरस तरङ्ग मय नित्यनवीन उन्माद करने वाली कामक्रीड़ा में चञ्चल, उज्ज्वल मेघ के सदृश अङ्गों से जो त्रिभङ्ग हो रहे हैं, मोरपुच्छ एवं मणिमय कुण्डलधारी ब्रज की अबलाओं का नीविबन्धन शिथिल करने वाले मुख पर वंशीधारी श्रीहरि हृदय में स्फुरित हों ॥३.४१॥



राधाकृष्णानङ्गतृष्णामहाब्धि-
निर्मर्यादं वर्धयन् नित्यमेव ।
सान्द्रानन्दापारसर्वोर्ध्वपार-
श्रीमद्वृन्दाकाननं पीणनं नः ॥

जो श्रीराधा-कृष्ण की कामतृष्णा के महासमुद्र की निरन्तर ही असीम वृद्धि करता है एवं जो आनन्दधनराशि के अपार सर्वोत्तम सौन्दर्य तथा सौभाग्य से युक्त है, वही श्रीवृन्दावन ही हमारा प्रीतिस्थल है ॥३.४२॥



केकाभिर्मुखरीकृताखिलदिशो नृत्यन्त्यहो केकिन-
श्चूतानां विटपे कुहूरिति मुहुः कूजन्त्यहो कोकिलाः ।
गायन्ति प्रतिपुष्पवल्लिमधुरं भृङ्गाङ्गनाः सर्वतः
प्रोन्मीलन्ति विचित्रदिव्यकुसुमामोदाश्च वृन्दावने ॥

अहो ! श्रीवृन्दावन आनां मोर अपनी केकाध्वनि से दशों दिशाओं को मुखरित कर नृत्य करते हैं, कोकिलाएं आनम्रवृक्षों पर बारबार कुहूकुहू शब्द कर रही हैं, भंवरे इधर उधर प्रति पुष्पलता पर मधुर गान कर रहे हैं, विचित्र दिव्य फूलों की सुगन्धि चारों दिशाओं को सुवासित कर रही है ॥३.४३॥


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