Saturday, August 7, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.७-९



मयूरकुटि वरसाना (Photo from Lake of Flowers).



नित्यक्रीडामयतनु तनुक्षौममानीलपीतं
विभ्रज्जाम्बुनदमरकतज्योतिराश्चर्यनीलम् ।
नानानर्मप्रहसनमहाकौतुकैर्यत्र नन्दत्य्
आनन्दाब्धिद्वयमिह रतिं विन्द वृन्दावनान्तः ॥

नित्य क्रीड़ परायण विग्रह जो सूक्ष्म एवं हलके नीले और पीले रङ्ग के रशमी वस्त्र धारण कर रहे हैं, सुवर्ण एवं मरकत मणि की ज्योति वाले तथा आश्चर्यमय लीलायुक्त आनन्द के समुद्र दोनों जिस श्रीवृन्दावन में अनेक प्रकार के हास्य प्रहसनादि के महाकौतुक विनोद के द्वारा आनन्द प्राप्त कर रहे हैं, उसी श्रीवृन्दावन में तू प्रीति कर ॥३.७॥




नित्यव्यञ्जन्मधुराश्चर्यकैशोरवेशं
नित्यान्योन्यप्रकटसुषमामाधुरीसंनिवेशम् ।
नित्योद्वर्धिप्रतिनवमिथः प्रेमनित्याङ्गसङ्गं
नित्यं वृन्दावनभुवि भजे गौरनीलं द्विधाम ॥

श्रीयुगलकिशोर नित्य ही मधुर से सुमधुर आश्चर्यजनक कैशोर वेश धारण करते हैं, नित्य ही एक दूसरे की शोभा और माधुरी में सन्निवेश करते हैं, नवीन नवीन नित्य अङ्ग-सङ्ग से एक दूसरे का प्रेम नित्य ही बढ़ता हैं, मैं नित्य ही श्रीवृन्दावन भूमि में उस गौर-श्याम जोड़ी का भजन करता हूं ॥३.८॥




श्रीगान्धर्वारसिकचरणद्वन्द्वमाध्वीकगन्धाद्
अन्धा नित्यं मतिमधुकरी श्रीलवृन्दावनान्तः ।
येषां भ्राम्यत्यतिरसभराद्विह्वला तादृशानां
पादान्ते मे विलुठतु मुहुर्भक्तिभावेन मूर्धा ॥

श्रीराधिकारसिक श्रीश्यामसुन्दर के युगल चरणों की मधुगन्धमें विमुग्ध होकर जिनकी बुद्धिरूप मधुकरी नित्य अति रसपूर्णता से विह्वला होकर श्रीवृन्दावन में ही भ्रमण करता है, उनके चरणों में भक्ति पूर्वक मस्तक झुकाकर मैं बारबार वन्दना करता हूं ॥३.९॥



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