Monday, August 23, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृतम् ३.५६-५८


बरसाने का दृश्य (Photo from Lake of Flowers).


मानापमानकोटिभिरक्षुभितात्मा समस्तनिरपेक्षः ।
वृन्दावनभुवि राधानागरमाराधये कदा मुदितः ॥
कोटि कोटि मानापमान होने पर भी क्षुभित न होकर किसी की भी अपेक्षा न करते हुए कब श्रीवृन्दावन में श्रीराधानागर की आनन्दपूर्वक मैं आराधना करूंगा ॥३.५६॥




वृन्दावनैकशरणस्त्यक्तश्रुतिलोकवर्त्मसंचरणः ।
भावाद्धरिचर्णान्तरपरिचरणाद्व्याकुलः कदा नु स्याम् ॥
अहो एकमें श्रीवृन्दावन की ही शरण ग्रहण करके वेदमार्ग एवं लौकिक समस्त आचरण त्याग कर, कब भावपूर्वक श्रीहरि के चरणों की मानसी सेवा करके मैं व्याकुल होऊंगा ॥३.५७॥




इह न सुखं न सुखमरे क्वापि वृथा न पत मोहजालेऽस्मिन् ।
अनुदिनं परमानन्दवृन्दावनं हि समाश्रयाद्यैव ॥
इस संसार में सुख नहीं है । अरे ! कहीं भी सुख नहीं है ! वृथा इस मोह जाल में मत फंस । आज ही नित्य परमानन्दमय श्रीवृन्दावन का सम्यक् प्रकार से आश्रय ग्रहण कर ॥३.५८॥


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