Tuesday, June 1, 2010

वृन्दावन-महिमामृत १.२५-२७


किं नो भूपैः किं नु देवादिभिर्वा
स्वाप्नैश्वर्योत्फुल्लितैः किं च मुक्तः ।
शून्यालम्बैर्वैष्णवैर्वापि किं नः
श्रीमद्वृन्दाकाननैकान्तभाजाम् ॥

एकान्तभाव से श्रीवृन्दावनाश्रयी हमारा राजाओं से क्या प्रयोजन ? देवताओं से क्या गरज ? और स्वाप्न ऐश्वर्य तुल्य ऐश्वर्य के द्वारा उत्फुल्लित मुक्तगणों से हमारा क्या प्रयोजन ? अन्य शून्यावलम्बी [परव्योम वैकुण्ठादि की प्राप्ति ही जिनका लक्ष है] वैष्णवों से ही हमारा क्या काम ? ॥१.२५॥



शं सर्वेषामप्रयासेन दात्री
द्वित्रैकान्तिप्रेममात्रैकपात्री ।
आनन्दात्मा शेषसत्त्वा निधात्री
श्रीवृन्दाटव्यस्तु मेऽन्धस्य धात्री ॥

अनायास में सवका सुख विधान करने वाली, दो तीन इने-गिने एकान्ती जनों की ही ऐकान्तिक प्रेम-पात्र एवं निखिल जीवों को आनन्दस्वरूप प्रदान करने वाली ऐसी जो श्रीवृन्दाटवी है, वही मुझ जैसे अन्धे की पालन करने वाली धात्री है ॥१.२६॥



वेणुं यत्र क्वणयति मुदा नीपमूलावलम्बी
संवीत श्रीकनकवसनः शीतकालिन्दीतीरे ।
पश्यन् राधावदनकमलं कोऽपि दिव्यः किशोरः
श्यामः कामप्रकृतिरिह मे प्रेम वृन्दावनेऽस्तु ॥

शीतल श्रीयमुना के तीर पर कदंब वृक्ष के मूल का अवलम्बन लिये हुए सुन्दर पीताम्बरधारी श्यामवर्ण कामप्रकृतिविशिष्ट कोई एक दिव्य किशोर श्रीराधा मुखकमल दर्शन करते करते जहां आनन्दपूर्वक वेणु बजाता है, उसी श्रीवृन्दावन में मेरी प्रीति हो ॥१.२७॥


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