Thursday, June 24, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.८३-८५


रतिरतिपतिकोटिसुन्दरं तत्प्रमुषितकोटिरमारमापतिश्रि ।
कनकमरकताभमूर्तिवृन्दाविपिनविहारि महोद्वयं भजामि ॥
कोटि कोटि रति-कामदेव से भी अधिक सौन्दर्यशाली, कोटि कोटि रमा एवं नारायण की शोभा को तिरस्कार करने वाले, स्वर्ण तथा इन्द्रनीलाभ मूर्तिधारी तथा श्रीवृन्दावनविहारी उस ज्योतिर्मय विग्रहयुगल श्रीयुगलकिशोर को मैं भजता हूं ॥१.८३॥



तदखिलभगवत्स्वरूपरूपामृतरसतोऽप्यतिमाधुरीधुरीणम् ।
कुवलयकमनीयधामराधापदरसपूर्णवने भ्रमद्भजामः ॥
अखिल भगवत्-स्वरूपों के रूपामृत रस से भी अतिशय माधुर्यमण्डित श्रीराधापदकमलरस से पूर्ण बन में भ्रमण करनेवाले उस सुप्रसिद्ध कुवलयवत् नीलकमलवत् विग्रह श्यामसुन्दर की हम भजना करते हैं ॥१.८४॥



अलक्ष्याः श्रीलक्ष्म्या अपि च भगवत्या भगवतः
सदा वक्षस्थाया मधुरमधुराः केचन रसाः ।
अहो यद्दासीभिः सततमनुभूयन्त ऊरुभिः
प्रकारैस् तां राधां भज दयित वृन्दावने वने ॥
भगवती श्रीलक्ष्मीदेवी सदा श्रीभगवान् की वक्षःस्थलविलासिनी होते हुए भी जिन किन्हीं किन्हीं मधुरतम रसों का आस्वादन नहीं कर सकती, अहो जिनकी दासियां भी अनेक प्रकार से उस रस का सर्वदा आस्वादन करती हैं, हे प्रिय ! श्रीवृन्दावन वास करके उस श्रीराधा जी का भजन कर ॥१.८५॥


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