Wednesday, June 9, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.४४-४६



वृन्दाटवी विमलचिद्घनसत्त्व
वृन्दारकपरवृन्दमुनीन्द्रवन्द्या ।
निन्ध्यान् अपि स्वकृपयाद्भुतवैभवेन
मादृक्पशून स्वचरणानुचरीं करोतु ॥
श्रीवृन्दाटवी में जो वास करता है, वे समस्त ही निर्मल एवं चिन्मय शरीर को प्राप्त करता हैं, सर्वश्रेष्ठ पूजनीय मुनीन्द्र वृन्द इस धाम की महिमा वर्णन करते हैं । मुक्त जैसे विभूति को प्रकाश कर अपने चरणों की दासी करें, यह प्रार्थना है ॥१.४४॥




शाखीन्द्रैः कोटिकल्पद्रुमपरममहावैभवैः सात्वतश्रूत्य्
उद्गानोन्मत्तकीरप्रमुखखगकुलैः कृष्णरङ्गैः कुरङ्गैः ।
दिव्यैर्वापीतडागैरमृतमयसरःसत्सरिद्रत्नशैलैः
कुञ्जैरानन्दपुञ्जैरिव कलय महामज्जु वृन्दावनं भोः ॥
कोटि कल्पवृक्षों की परम महाविभूति से सम्पन्न वृक्षराजों से जो शोभित है, वैष्णवों के द्वारा श्रुतियों के उच्च गान से उन्मत्त होकर कीर शारी प्रमुख पक्षि कुल एवं काले रङ्ग के हरिण कुल (अथवा श्रीकृष्ण की आनन्द देने वाले हरिण कुल) जहां विहार कर रहे हैं, दिव्य दिव्य कूप तड़ागादि के द्वारा जो मण्डित हो रहा है, तथा अमृतमय सरोवरों, नदियों एवं मणिमय पर्वतों से अलंकृत है श्रीवृन्दावन की महा मनोहर शोभा हो रही है, अहो दर्शन कर ॥१.४५॥




विश्वैश्वर्यमहाचमत्कृतिरियं किं भाति सर्वेशितुर्
ब्रह्मानन्दसुधाम्बुधेरनवधेः किं वाद्भुतोऽयं रसः ।
किं वा दिव्यसुकल्पपादपवनश्रेणीसुबीजं परं
कृष्णप्रेमनुताद्भुता परिणतिर्वृन्दाटवी किं न्वियम् ॥
यह वृन्दाटवी क्या उस सर्वेश्वर के विश्व ऐश्वर्य-समूह की महा चमत्कार कारी कारीगरी विशेष है ? या असीम ब्रह्मानन्द सुधा समुद्र का अद्भुत कोई अनिर्वचनीय रस विशेष ? अथवा दिव्य दिव्य उत्तमोत्तम कल्प वृक्ष युक्त वन राज का सर्व श्रेष्ठ बीज विशेष है ? या यह श्रीवृन्दावन कृष्ण प्रेम की प्रशंसनीय एक अद्भुत परिणति है ? ॥१.४६॥

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