Saturday, June 5, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.३४-३६



असुलभामिह लोके लब्धुमिच्छस्ययत्नात्
यदि विपुलधनस्त्रीपुत्रगेहोत्तमादि ।
करनिपतितमुक्तिकृष्णभक्तिं च काङ्क्ष-
स्यधिवस परधामैवाद्य वृन्दावनाख्यम् ॥

यदि तू दुर्लभ विपुल धन, स्त्री, पुत्र, उत्तमोत्तम गृहादि इस संसार में अनायास प्राप्त करना चाहता है, करनिपतित (हाथ में धरी हुई) मुक्ति, कृष्ण भक्ति एवं प्रेम की प्राप्ति के लिए भी यदि तेरी आकांक्षा है, तो आज ही से तू श्रीवृन्दावन नामक परम धाम में वास कर ॥१.३४॥



वृन्दाटवी नहि कवीश्वरकाव्यकोटि-
सम्भाव्यमानगुणरत्नगणच्छटैका ।
एतामपाररसखानिमशेषखानि
संरुध्य मित्रमतिमध्यवसीय याहि ॥

श्रेष्ठ कवि गण कोटि कोटि काव्य रचना के द्वारा भी श्रीवृन्दावन के गुण रत्न समूह की एकमात्र छटा का भी वर्णन नहीं कर सकते । हे मित्र ! निखिल इन्द्रियों की वृत्तियों का निरोध कर इस अपार रस खानि रूप वृन्दाटवी के लिए स्थिर मति होकर प्रस्थान कर ॥१.३५॥



वृन्दाटवी जयति कामगवीसुरद्रू-
चिन्तामणीन् अगणितानपि तुच्छवन्ती ।
श्रीशङ्करद्रुहिणमुख्यसुरेन्द्रवृन्द-
दुर्ज्ञेयदिव्यमहिमैकरजःकणेन ॥

लक्ष्मी शङ्कर ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ सुर गण जिसकी अप्राकृत महिमा को कदापि नहीं जान सकते, एक रज-कण के द्वारा ही जो अगणित कामधेनु, कल्पवृक्ष एवं चिन्तामणि के समूह को भी तुच्छ करती है, उस श्रीवृन्दाटवी की जय हो ॥१.३६॥


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