राधामाधवयोर्यशांसि सततं गायंस्तथा कर्णयन्
तज्जीवेषु च वर्णयन् समरसैः सम्भूय सन्तर्कयन् ।
कुञ्जं कुञ्जमनारतं बहुपरिष्कुर्वन् महाभावतो
देहादौ कृतहेलनो दयित हे वृन्दाटवीमावस ॥
हे दयित ! हे प्यारे ! श्रीराधामाधव के यश का निरंतर गान एवं श्रवण करते करते श्रीराधागोविन्द के जीवों के निकट उसका वर्णन करते करते, समरस रसिक भक्तों के साथ मिलकर इष्टगोष्ठी करते करते, निरंतर कुंजों को बारम्बार परिष्कार बुहारी करते करते, त्८ महानुरागवश प्रेमवश देह के प्रति निरपेक्ष होकर श्रीवृन्दाटवी में वास कर ॥१.५९॥
लब्ध्वा चिन्तामणिमथ महावारिधौ निक्षिपेत् सः ।
कृत्वा वश्यं सकलभगवच्छेखरं श्वाधमः स्याद्
यो दुर्बुद्धिस्त्यजति सहसा प्राप्य वृन्दावनं तत् ॥
जो दुर्बुद्धि मनुष्य वृन्दावन में आकर भी सहसा त्याग कर अन्यत्र चला जाता है, वह मानों मुक्ति द्वारा गृहीत पद होकर भी नरक में धावित होता है, हाथ में चिन्तामणि लेकर उसे महासमुद्र में फैंकता है, और सकल भगवत् शिरोमणि परम भगवान् को आधीन करके भी वह कुत्ते से अधम है ॥१.६०॥
देवा ब्रह्मादयः स्युस्तत उरुमहिता वल्लभा ये व्रजेन्दोः ।
एते ह्यद्वैत सच्चिद्घनवपुषो दूरदूरातिदूर-
स्फूर्जन्माहात्म्यवृन्दा बृहदुपनिषदानन्दजानन्दकन्दाः ॥
श्रीवृन्दावन के स्थावर-जङ्गम की सेवा मुझे प्राप्त हो । अहो ! जो गोकुलचन्द्र के प्रियतम है, वे ब्रह्मादि देवताओं से भी अधिकतर पूजा करने योग्य हैं । ये श्रीकृष्ण प्रियजन अद्वय सच्चिदानन्दघनमूर्ति हैं, इनकी महिमा दूरातिदूर, मानव बुद्धि के अगोचर, स्फुरित होता है । अति महानन्दराशि है, ये उसके भी मूल बीजस्वरूप है ॥१.६१॥
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