Saturday, June 12, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.५३-१.५५


यत्राभङ्गस्मरविलसितैः क्रीडतो दम्पती तौ
गौरश्यामौ प्रतिपदमहाश्चर्यसौन्दर्यराशी ।
सान्द्रानन्दोन्मदरसमहासिन्धुसंमज्जिताली
वृन्दौ वृन्दावनमिह महादुर्भगा नाश्रयन्ते ॥

जहां निरंतर कामविलास में क्रीड़ा परायण होकर प्रतिक्षण महाश्चर्य मय लाव्यण्य सौन्दर्य राशि का विस्तार करते हुए वही गौरश्यामाङ्ग युगलकिशोर गाढ़ आनन्द पूर्वक उन्मत्तकारी रस के महासमुद्र में सखीवृन्द को निमज्जित कर विहार कर रहे हैं, उस इसी श्रीवृन्दावन का महादुर्भाग्यवान मनुष्य ही आश्रय ग्रहण नहीं करते ॥१.५३॥





राधानागरकेलिसागरनिमग्नालीदृशां यत् सुखं
नो तल्लेशलवायते भगवतः सर्वोऽपि सौख्योत्सवः ।
तत्राश्य कस्यचिन् निरुपमां प्राप्तस्य भाग्यश्रियं
तद्वृन्दावननाम्नि धाम्नि परमे स्वीयं वपुर्नश्यतु ॥

श्रीराधानागर के केलिसमुद्र में निमग्न सखियों के नेत्रों को जो सुख होता है, श्रीभगवान् के सकल सुखोत्सव भी उस सुख के लवलेश तुल्य नहीं हैं । अनुपम सौभाग्य लक्ष्मीवान जिस किसी व्यक्ति की यदि उस सुख को प्राप्त करने की आशा हो, तो श्रीवृन्दावन नामक परमधाम में अपने शरीर का पात करे, देहान्त करे ॥१.५४॥





राधाकेलिमृगस्य कस्यचिदहो श्यामस्य यूनौ नव
स्याभीरीगणकाङ्क्षमानकरुणादृष्टेः स्मरोन्मादिनी ।
सर्वाम्नायदुरूहकृष्णरससर्वस्वैकसंचारिणी
श्रीवृन्दाविपिनाभिधा विजयते कन्दर्पकेलिस्थली ॥

अभीरी गोपीगण जिसकी करुणापूर्ण दृष्टि की प्रार्थना करती हैं, उसी श्रीराधाकेलिमृग किसी एक श्यामाङ्ग नवीन युवक को कामोन्मत्तता विधान करने वाली एवं समस्त वेदों के सुगुप्त कृष्ण रस के सर्वस्व को ही सम्यक् प्रकार संचार करने वाली श्रीवृन्दाटवी नामक कामविलास स्थली सर्वोत्कर्ष युक्त विराजमान है ॥१.५५॥


No comments: