Wednesday, June 2, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.२८-३०


Photo of Tattiyasthan by Abha Shahra


तैस्तैः किं नः परमपरमानन्दसाम्राज्यभोगैः
किं वा योगैः परपदकृतैः किं परैर्वाभियोगैः ।
वासेनैव प्रसन्नमखिलानन्दसारातिसारं
वृन्दारण्ये मधुरमुरलीनादमाकर्णयिष्ये ॥

अतीव परमानन्द देने वाले उन समस्त साम्राज्य भोगों से हमें क्या ? स्वर्गादि की प्राप्ति के लिये योग समूह से क्या लाभ ? अन्यान्य विषयों में अभिनिवेश करने से क्या फल ? क्यों कि श्रीवृन्दावन में वास करने से तो निखिल आनन्द का परम सार मधुर मुरली निनाद हठात् कानों में प्रवेश करेगा ॥१.२८॥




श्रीवस्त्राभरणादिभिः करपदाद्युत्कर्तदाहादिभि-
र्निन्दासंस्तवकोटिभिर्बहुविभूत्यत्यन्तदैन्यादिभिः ।
जीवन्नेव मृतो यथा न विकृतिं प्राप्तः कथंचित् क्वचित्
श्रीवृन्दावनमाश्रये प्रियमहानन्दैककन्दं परम् ॥

उत्तम उत्तम वस्त्र-भूषणादि की प्राप्ति में अथवा कर-पादादि के काटे या जलाये जाने पर, कोटि कोटि निन्दा होने पर भी जीवन्मृत की तरह कभी भी किसी प्रकार से विकार को प्राप्त न होकर परम प्रिय महानन्द बीज स्वरूप इस श्रीवृन्दावन का आश्रय करता हूं ॥१.२९॥




दुःखान्येव सुखानि विद्ध्यपयशो जानीहि कीर्तिं परां
मन्येथा अधमैश्च दुष्परिभवान् संमानवत् सत्तमैः ।
दैन्यान्येव महाविभूतिमतिसल्लाभान् अलभान् सदा
पापान्येव च पुण्यमन्ति यदि ते वृन्दावनं जीवनम् ॥

यदि श्रीवृन्दावन में तेरा जीवन हो, तो दुखों को तू सुख समूह जान, अपयश को परमा कीर्ति मान, अधम पुरुषों के द्वारा अत्यन्त अपमानित होने पर उसे ही तू साधु पुरुषों के द्वारा किये हुए सम्मानवत् जान, दरिद्रता राशि को महा विभूति स्वरूप, अत्युत्तम मायिक लाभों की महा क्षति स्वरूप एवं पाप समूह को पुण्य रूप प्रतीत कर ॥१.३०॥


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