Sunday, June 13, 2010

श्रीवृन्दावनमहिमामृत १.५६-५८





महारङ्कत्वे वा परमविभवे बहुतरे
सुखे वा दुःखे वा यशसि बहुलेऽवापयशसि ।
मणौ वा लोष्ट्रे वा सुहृदि परमे विद्विषति वा
समादृष्टिर्नित्यं मम भवतु वृन्दावनजुषः ॥

महा दारिद्र्य में अथवा परम विभुत्व में, महान सुख में अथवा विषम दुःख में, बहुत यश में अथवा अपयश में, मणि में अथवा मिट्टी के डेले में, परम बन्धु में अथवा परम शत्रु में—वृन्दावन वास करते हुए हमारी नित्य समान दृष्टि हो ॥१.५६॥





आश्चर्यधामवृन्दावनमिदमहहाश्चर्यमत्रापि राधा-
कृष्णाख्यं गौरनीलद्वयमधुरमहस्तत्पदाम्भोरुहे च ।
आश्चर्यः शुद्धभावः परमपदमथारुह्य तन्निष्ठ एवा-
श्चर्यः कश्चिन् महात्मा परमसुविरलस्तद्वदाश्चर्य एव ॥

यह श्रीधाम वृन्दावन आश्चर्य है ! अहो ! इससे और एक आश्चर्य है—श्रीराधाकृष्णाख्य गौर-नील-वर्णयुक्त दोनों का मधुर विग्रह । और इनके चरणकमलों में जो शुद्धभाव, वह भी एक आश्चर्य है । और एक आश्चर्य यह है, परम पद श्रीवृन्दावन में आकर जिसकी इसमें निष्ठा है, और इस समस्त तत्त्व को जानने वाला परम विरला कोई एक महात्मा भी एक आश्चर्य है ॥१.५७॥






सखे न जनरञ्जनं कुरु कदिन्द्रियाणां सदा
विधेहि बहुगञ्जनं प्रणयभञ्जनं सर्वतः ।
हठं न कुरु बन्धने सुतकलत्रमित्रादिके
वपुव्ययसमीहया निवस वत्स वृन्दावने ॥

हे सखे ! लोकों केw रञ्जन या प्रसन्नता के लिए तू यत्न न कर, सर्वदा हर ओर से जैसे प्रीति टूटे, उसी प्रकार की बहु ताड़ना इन शोभाहीन इन्द्रियों के प्रति विधान कर, स्त्री-पुत्र-बन्धु आदि के प्रति आसक्ति में और हठ न कर । वत्स ! जब तक शरीर रहे, प्रतिज्ञापूर्वक इस श्रीवृन्दावन में वास कर ॥१.५८॥

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