देहस्त्रीवित्तपुत्रादिषु नहि मम धीर्मित्रबुद्धिः स्वशत्रु
स्वा पीडायां समन्तात् सुखमतिरमितानन्दवृन्दावनेऽस्तु ॥
स्त्रीमात्र में मेरी मातृबुद्धि हो, स्थावर-जङ्गमात्मक समस्त प्राणियों में मेरी उपास्यबुद्धि हो, एवं सांसारिक समस्त अर्थों के लाभ में भी हृदय एवं मुख की म्लानिजनक हानिबुद्धि उत्पन्न हो । देह स्त्री धन और पुत्रादि में ममताबुद्धि न रहे, तथा अपने को विशेषभाव में पीड़ा देने वाले शत्रुओं में भी मेरी मित्रबुद्धि हो । इस प्रकार से सर्वअदा सुखमग्नचित्त होकर अपरिसीम आनन्दमय श्रीवृन्दावन में मैं वास कर सकूं ॥१.६५॥
सर्वे भोगा भवन्ति प्रबलगरलवह्न्युद्भटज्वालकल्पाः ।
कीटप्रायाः समस्तप्रवरसुरगणाः सिद्धयश्चेन्द्रजाल
प्रायाः संस्वाद्य वृन्दावनरसिकरसं माद्यते मेऽद्य हृद्यम् ॥
विमुक्ति तिक्त या कड़वी लगती है, समस्त इन्द्रियों के विशेषई विषम नरक के समान प्रतीत होता हैं, एवं निखिल भोग पदार्थ प्रबल विष एवं अग्नि की तीव्र ज्वाला के सदृश लगते हैं । श्रेष्ठ श्रेष्ठ देवता कीडों के समान एवं अष्ट-सिद्धियां इन्द्रजालवत् प्रतीयमान होती हैं, क्योंकि आज मेरा हृदय श्रीवृन्दावन रसिक श्रीश्यामसुन्दर का रस आस्वादन करके मतवाला हो रहा है ॥१.६६॥
क्षिप्त्वा कल्पद्रुमवरवनं हन्त शाखोटमेषि ।
हित्वा वृन्दावनरसकथामन्यवार्ता रुचिश्चेत्
ज्ञातं क्षिप्त्वा परममृतं भोक्तुमिच्छुः श्वविष्ठाम् ॥१.६७॥
यदि इस वृन्दावन को त्याग कर तू अन्यत्र जाये, तो सचमुच तू कल्पवृक्षों के श्रेष्ठ वन को छोड़ कर किसी सिंवार के जङ्गल में जाता है । यदि वृन्दावन के रस की कथा को छोड़ कर और वार्ता तुम्हें अच्छी लगे, तब तू जान ले कि उत्तमोत्तम अमृत को त्याग कर कुत्ते की विष्ठा भोजन करने की तुम्हारी इच्छा होती है ॥१.६७॥
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