Dana-nivartana-kund
वृन्दावनाय सकलार्थसुरद्रुमाय ।
श्रीराधिकासुरतनाथविशुद्धभाव-
सत्रायमैव कुरु कृत्यसमाप्त्यपेक्षाम् ॥
अरे मूर्ख ! आज ही सब कुछ विषय सम्पदादि परित्याग कर सर्व वाञ्छाकल्पतरु श्रीराधासुरतनाथ के विशुद्ध भाव के सुलभ प्राप्ति स्थल इस वृन्दावन की यात्रा कर । जो आरब्ध कर रखे कर्मों की समाप्ति पर्यन्त और अपेक्षा न कर ॥१.७१॥
तर्हि त्वं ध्याय वृन्दावनमनिशमथोपास्य वृन्दावनेशौ ।
तन्नामान्य् एव नित्यं जप सततमथो तत्कथां संशृणुष्व
श्रीमद्वृन्दावनस्थान् अथ परिचर भो भोजनाच्छादनाद्यैः ॥
हे साधो ! यदि तू इन समस्त स्वप्नकल्पित वस्तुओं का सहसा त्याग नहिं कर सकता, तो श्रीवृन्दावन के युगलकिशोर की उपासना करते हुए निरंतर श्रीवृन्दावन का ध्यान कर । प्रति क्षण उनके नामों का जप कर, निरंतर उनकी लीलाकथाओं को श्रवण कर, और सब वृन्दावन वासियों को भोजन वस्त्रादि देकर उनकी सेवा कर ॥१.७२॥
तीर्थे वासयितुः स्वयं हि तरति द्वौ तौ स यत् तारयेत् ।
प्रेमानन्दरसात्मधामनि परे वृन्दावनवासक-
स्त्वाश्चर्यां वृषभानुजाप्रियरतिं प्राप्नोत्यनायसतः ॥
जो वस्त्र-अन्न या वासस्थानादि के द्वारा तीर्थ (अर्थात् श्रीवृन्दावन) में किसीको वास कराता है, वह श्रीवृन्दावन में वास करने वाले से भी कोटिगुणा अधिक पुण्य का पात्र होता है, क्योंकि जो वास करता है, वह तो केवल स्वयं उत्तीर्ण होता है, और जो दूसरे को वास कराता है, वह अपना एवं जिसको वास कराता है, उसका उद्धार करता है । श्रेष्ठ प्रेमानन्द रसस्वरूप श्रीधाम वृन्दावन में जो दूसरे को वास कराता है, वह श्रीवृषभानु किशोरी के प्रिय श्रीकृष्ण में आश्चर्यमय रति को अनायास ही प्राप्त कर लेता है ॥१.७३॥
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