विष्णोर्धाम्नः स्फुरदतिमहानन्दवृन्दावनस्थान् ।
जन्तून् हन्तुर्विरचितकृतीन् पुरु प्रेमभाजो
दानैर्मानैरहह भजतो धन्यधन्यान् नमामः ॥
श्रीविष्णु के समस्त धामों से परव्योम से भी अधिक स्फूर्तिशील महानन्दमय जो श्रीवृन्दावन है, उस धाम के सब जीव अपनी हत्या करने वालों की भी दान और मान से सेवा करते हैं, एवं जिन्होंने श्रीराधाकृष्ण को परम ऋणी किया है, उन पूर्ण प्रेम के भाजन धन्य धन्य पुरुषों को हम नमस्कार करते हैं ॥१.७७॥
इस श्लोक के तृतीय चरण में छन्दः दोष दिखता है । इस लिये पाठ की शुद्धि के बारे में कुछ सन्देह भी आता है । जो भी हो, जैसा मिला वैसा प्रकाश करता हूं ।
शिशोः सुतरुणस्थ वा न खलु मृत्युराकस्मिकः ।
तदद्य निरवद्यधीरवपुरिन्द्रियासक्तिक्तो
न किञ्चन विचारय द्रुतमुपैतु वृन्दावनम् ॥
हे सखे ! किस दिन मृत्यु होगी, क्या तू यह जानता है ? बालक या नवीन युवक की क्या अकस्मात् मृत्यु नहीं होती है ? अत एव अनिन्दनीय बुद्धि एवं देह इन्द्रियादि से आसक्ति रहित होकर कोई विचार न करते हुए आज शीघ्र ही श्रीवृन्दावन के लिये चल दे ॥१.७८॥
त्वं चेत् काङ्क्षसि माधुरीभरधुरीणानन्दसन्दोहिनीम् ।
धर्मज्ञानविरक्तिभक्तिपदवीं तत्साध्यमप्यस्पृशन्
दुर्भेदं सहसा विभिद्य निगडं संन्यस्य वृन्दावने ॥
समस्त भगवत् रतिसमूह से भी उन्नत श्रीयुक्त एवं माधुर्यरस श्रेष्ठ आनन्दयुक्त विशुद्ध आद्यरति (मधुररति) की यदि तू चाहता है, तो धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं भक्तिरूप साधन तथा उसके साध्य को स्पर्श न करके दुर्भेद्य पाशों को बलपूर्वक तोड़कर श्रीवृन्दावन में निरन्तर वास करने का संन्यासव्रत ग्रहण कर ॥१.७९॥
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