Tuesday, June 29, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतम् १.९५-९७



संक्रान्तं निजकान्तिमण्डलमुदीक्ष्योरस्थले तर्कयन्
नीलां कञ्चुलिकां वरामपनयासक्त्या प्रिये विस्मिते ।
याताया नवकेलिकुञ्जशयनं श्रीराधिकायाः परी
हासाः सन्तु मुदे ममातिहसितालीभिर्बहिस्तद्रसाः ॥
नवकेलिकुञ्जशय्या पर विराजमान श्रीराधा के वक्षस्थल में प्रतिबिम्बित निज कान्तिमण्डल का दर्शन कर और एक नीलकञ्चुलिका का अनुमान करते हुए उसे दूर करने की व्यर्थ चेष्टा के लिये विस्मित प्रिय श्रीकृष्ण के प्रति कुंज के बाहर खड़ी हुई हास्ययुक्ता सखीवृन्द की जो रसपूर्ण परिहासवाणी है, वही मेरे लिये अतिशय आनन्द विधान करे ॥१.९५॥


कदाचित् श्रीराधाचरणकमलद्वन्द्वपतितं
कदाचित् श्रीराधामुखकमलमाध्वीरसपिबम् ।
कदाचित् श्रीराधाकुचकमलकोषद्वयरतं
विलोके तं कृष्णभ्रमरमधि वृन्दावनमहम् ॥
कभी श्रीराधा के चरणकमलों में पतित, कभी श्रीराधा के मुखारविन्दमधुरस पान करने में उन्मत्त और कभी श्रीराधा के कुचकमल कोषद्वय निमग्न कृष्णभ्रमर के में श्रीवृन्दावन में दर्शन करूंगा ॥१.९६॥


निर्विद्य कृत्वाद्यखिलात् कदाहं
च्छित्वा समस्ताश्च जगत्यपेक्षाः ।
प्रविश्य वृन्दावनमत्यसङ्ग-
स्तदीशवार्ताभिरहानि नेष्ये ॥
समस्त कर्तव्यों से निर्वेद प्राप्त कर एवं जगत् की सकल अपेक्षाओं से रहित होकर मैं कब निःसङ्ग भाव से श्रीवृन्दावन में प्रवेश कर श्रीवृन्दावनेश्वरी एवं श्रीवृन्दावनेश्वर की वार्ताओं में, अर्थात् गुणलीलाओं के श्रवणकीर्तन में, दिन यापन करूंगा ? ॥१.९७॥

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