ष्प्रापग्रासोऽथ सम्राडसमजडमतिः सर्वविद्यानिधिर्वा ।
यः कोऽपि त्वं सखे नो गणय कथमपीक्षस्व वृन्दावनं तत्
छिन्धि छिन्धि स्वपाशान् गुरुनिगमगिरा स्वीयमोहैकसिद्धान्
पापी या पुण्यात्मा, प्रसिद्ध अपकीर्ति या कीर्तिमान, महादरिद्र या महासम्राट, विषम जड़मति या सर्वविद्याविशारद, तुम जो कुछ भी क्यों नहीं हो, हे सखे ! तू इन में अप्नई कुछ भी गणना न कर, किंतु जैसे भी हो उस श्रीवृन्दावन के दर्शन कर, और गुरु एवं शास्त्रानुसार अपने मोह के मूलस्वरूप अपने बन्धनों को छेदन कर ॥१.६८॥
छित्त्वा दुर्जरशृङ्खलं गुरुगिरा ते मोहमात्रोदितम् ।
वृन्दारण्यमुपेत्य शीघ्रमखिलानन्दैकसाम्राज्यसत्-
कन्दं कन्दफलादिवृत्तिरनिशं तन्नाथलीलां स्मर ॥
हे सखे ! देह, गृह, स्त्री आदि में वृथा अहं-मम बुद्धि न कर, मोह मात्र ही उत्पन्न करने वाले इन पाशों या जञ्जीरों को गुरुवाक्यों द्वारा तोड़ । समस्त साम्राज्यसुख के बीजस्वरूप श्रीवृन्दावन में शीघ्र पहुंच कर कन्द-फलादि द्वारा जीवन धारण करते हुए श्रीवृन्दावनचन्द्र की लीला निरंतर स्मरण कर ॥१.६९॥
मृतिमखिलपुमर्थभ्रंशिकां विद्धि मूर्ध्नि ।
चल चल सुहृदद्यैवाभिमुख्येन वज्रा-
दपि च हृदि कठोरः श्रीलवृन्दावनस्य ॥
मिथ्या देहगेहादि की कभी अपेक्षा न कर, समस्त पुरुषार्थों को नाश करने वाली मृत्यु को सिर पर खड़ा जान, हे बंधो ! आज ही श्रीवृन्दावन के लिए वज्र से भी कठोर चित्त हो कर चल दे, चल दे ॥१.७०॥
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