Wednesday, June 30, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतम् १.९८-१००




कदा श्रीमद्वृन्दावनमिह मृषा स्नेहनिगडं
समुच्छिद्य स्वानां शरणमुपयास्यामि विकलः ।
क्वचित् स्वान्तः शल्योद्धरणमभिपश्यन् नहि मनाग्
अपि श्रौते वर्त्मन्यखिलविदुसामनुमते ॥१.९८॥

मैं कब अपने सम्बन्धियों के मिथ्या स्नेहपाशों को तोड़कर एवं समस्त विद्वज्जनों के द्वारा अनुमोदित वैदिक मार्ग से कभी भी अपने हृदय के बाण निकलने की कोई भी आशा न देखकर व्याकुलचित्त से श्रीवृन्दावन की ही शरण ग्रहण करूंगा ॥१.९८॥



वृन्दावनेशैकपदस्पृहोऽपि
महत्तमानां श्रुतभाषितोऽपि ।
विदन्नपि स्वार्तह्विधाति सर्वं
हा धिक् न वृन्दावनमाश्रयामि ॥१.९९॥

श्रीवृन्दावनचन्द्र के चरणकमलों में स्पृहावान् होता हुआ भी महत्पुरुषों के वचन सुनकर भी एवं सब पदार्थों को स्वार्थविध्वंसी, अथवा काम बिगाड़ने वाले) जानता हुआ भी, श्रीवृन्दावन का आश्रय ग्रहण नहीं करता हूं । हाय ! मुझे धिक्कार है ॥१.९९॥



सकृदपि यदि दृष्टा हन्त वृन्दाटवि त्वं
सकृदपि यदि राधाकृष्णनामाभ्यधायि ।
सकृदपि यदि भक्त्या सन्नतास्त्वत्प्रपन्ना
ध्रुवमहह तदा मामस्व नोपेक्षितास्ति ॥१.१००॥

हे माता श्रीवृन्दाटवि ! जीवन में एकबार भी यदि आपके दर्शन कर लूं, जीवन में एक बार भी यदि श्रीराधाकृष्ण नाम उच्चारण कर पाऊं, और जीवन में एक बार भी यदि भक्तिपूर्वक आपके शरणापन्न पुरुषों को प्रणाम कर लूं, तो निश्चय ही आप मेरी उपेक्षा नहीं करोगी ॥१.१००॥



इति श्रीश्रीप्रबोधानन्दसरस्वतीगोस्वामिपादविरचिते
श्रीश्रीवृन्दावनमहिमामृते
प्रथमं शतकम्
॥१॥

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