Wednesday, June 23, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.८०-८२




महाभाग्यैरवाप्तं वपुर् इदमिहाकर्णि महिमाद्
भुतो वृन्दाटव्याः कलितमखिलं स्वप्नसदृशम् ।
शुभायामाश्वासो नहि नहि मतौ नापि वपुषि
क्षणेऽस्मिन्न् एव त्वं तदभिचल वृन्दावनवनम् ॥१.८०॥

महाभाग्य से यह नरतन पाया है । महाभाग्य से श्रीवृन्दावन की अद्भुत महिमा भी सुनी है । समस्त संसार स्वप्नसमान है, यह भी महाभाग्य से जान लिया है । शुभबुद्धि का आश्वास नहीं किया जाता, आज शुभबुद्धि है, कल न भी रहे, और शरीर का भी विश्वास नहीं है, अतः इसी क्षण ही तू श्रीवृन्दावन के लिये प्रस्थान कर ॥१.८०॥



भ्रातर्यर्हि निमीलितोऽस्मि नयने तत्र क्व कान्तात्मज
भ्रातृस्वाप्तसुहृद्गणः क्व च गुणाः कुत्र प्रतिष्ठादयः ।
कुत्राहङ्कृत्यः प्रभुत्वधनविद्याद्यैस् ततः सर्वतस्
त्वं निर्विद्य सविद्य किन्तु न चलस्य् अद्यैव वृन्दावनम् ॥

हे भ्रातः ! जब तुम दोनों नेत्र बन्द करोगे मृत्यु के समय, तब तुम्हारे स्त्री, पुत्र, भ्राता एवं विश्वासपात्र सुहृद्गण कहां रहेंगे ? तुम्हारे गुण, तुम्हारी प्रतिष्ठा आदि किस काम आवेंगे ? प्रभुता, धन एवं विद्या जनित जो अभिमान है, वह कहां रहेगा ? इसलिये, हे सुविज्ञ ! सबों से वैराग्य करके आज ही तू क्यों श्रीवृन्दावन नहीं चलता ? ॥१.८१॥



रुददपि पितृमातृबन्धुपुत्रादिकम्
अपहाय निशम्य नार्हदुक्तीः ।
हृदि परमकठोरतां दधानो
द्रुतमवलोकय कृष्णकेलिकुञ्जम् ॥

रोते हुए पिता, माता, बन्धु तथा पुत्रादिकों का भी त्याग कर, तुम्हारे श्रीवृन्दावन जाने में यदि वे स्नेहवश रोते हैं, पूजनीय व्यक्तियों के वाक्यों को सुन ही न, हृदय में परम कठोरता पोषण करते हुए श्रीकृष्ण का केलिकुञ्ज वृन्दावन का दर्शन कर ॥१.८२॥


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