Friday, June 4, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.३१-३३




त्यक्त्वा सङ्गं दूरतः स्त्रीपिशाच्या
सर्वाशानां मूलमुद्धृत्य सम्यक् ।
दैवाल् लब्धेनैव निर्वाह्य देहं
श्रीमद्वृन्दाकानने जोषमास्स्व ॥

स्त्री पिशाची का सङ्ग दूर से त्याग कर, समस्त वासनाओं को सम्यक् प्रकार से मूल से उच्छेद कर, एवं दैव लब्ध वस्तु द्वारा देह यात्रा का निर्वाह करते हुए श्रीवृन्दावन में प्रीति-पूर्वक वास कर ॥१.३१॥





न कुरु न वद किंचिद्विस्मराशेषदृश्यं
स्मर मिथुनमहस् तद्गौरनीलं स्मरार्तम् ।
बहुजनसमवायाद्दूरमुद्विज्य याहि
प्रिय निवसतु दिव्यश्रीलवृन्दावनान्तः ॥

तुम्हारे लिये कर्तव्य और वक्तव्य कुछ भी नहीं, दृश्यमान समस्त वस्तुओं को भूल जा, कामातुर उस गौर-नील जोड़ी को स्मरण कर, जिस स्थान पर लोकों का समूह, उस स्थान से उद्विग्न चित्त होकर दूर चला जा, हे प्रिय, अप्राकृत श्रीमद् वृन्दावन में वास कर ॥१.३२॥





करनिहितकपोलो नित्यमश्रूणि मुञ्चन्
परिहृतजनसङ्गोऽरोचमानानुयानः ।
प्रतिपद बहुलार्त्या राधिकाकृष्णदास्ये
वसति परमधन्यः कोऽपि वृन्दावनेऽस्मिन् ॥

नित्य कपोलदेश पर हाथ रखे हुए अश्रु प्रवाह करते करते निसङ्ग होकर एवं सेवक अनुचर रहित होकर प्रतिक्षण व्याकुलता-पूर्वक जो श्रीराधाकृष्ण के दास्य रस में निमग्न होकर इस श्रीवृन्दावन में वास करता है, वही परम धन्य है ॥१.३३॥


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