Saturday, June 26, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.८९-९१

रमणरेति मार्ग, १९७७ (रामदास)


निष्किञ्चनो नित्यविविक्तसेवी
वृन्दावने दैवतवृन्दवन्द्ये ।
श्रीराधिकामाधवनामधाम-
द्वयं कदा भावभरेण सेव्ये ॥

निष्किञ्चन एवं नित्य निर्जनवासी होकर मैं कब देवतागणों से भी वन्दनीय इस श्रीवृन्दावन में श्रीराधामाधव नामक जोड़ी की भावपूर्वक सेवा करूंगा ॥१.८९॥




निजसर्वनाशकरमात्मसुहृत्
सुतदारमित्रपरिवारगणम् ।
परिवञ्च्य कर्हि दृढबुद्धिरहं
प्रपलाय यामि हरिकेलिवनम् ॥

अपना सर्वनाश करने वाले अपने सुहृत्, स्त्री, पुत्र, मित्रादि परिवार के लोगों की वञ्चना कर, कब मैं दृढबुद्धिपूर्वक दौड़कर श्रीहरि के केलिवन श्रीवृन्दावन का आश्रय करूंगा ? ॥१.९०॥





जन्मान्यसङ्ख्यानि गतानि मे वृथा
व्यग्रात्मनो देहगृहादिचेष्टया ।
अद्यापि मुह्याम्यपि बुद्धिमानहं
तवैव वृन्दाटवि नाम मे गतिः ॥

देहगेहादि की चेष्टा में व्यग्रचित्त होकर मेरे अनगिनत जन्म वृथा नाश हो गए हैं । हाय ! बुद्धिमान होकर भी आज तक मैं मोह में फसा रहा । हे वृन्दाटवि ! अब आपका नाम ही मेरी एकमात्र गति है ॥१.९१॥


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