Thursday, June 17, 2010

चंडी प्रसाद भट्ट : पर्यावरण और विकास

वरिष्ठ पर्यावरणविद् चंडी प्रसाद भट्ट से कुमार सिद्वार्थ कुमार की बातचीत

अनेकानेक राष्ट्रीय और अंर्तराष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित और चिपको आंदोलन के प्रमुख री चंडीप्रसाद भट्ट ने अपना संपूर्ण जीवन पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोकचेतना जागृत करने में समर्पित कर दिया है।

७६ वर्षीय श्री भट्ट ने १९७२ में दशौली ग्राम स्वराज्य संघ की स्थापना कर स्थानीय समुदाय को पेड़ों की रक्षा के लिए अभिप्रेरित किया, तथा सैकड़ों पेड़ों को कटने से बचाया। रेमन मेगसेसे पुरस्कार से सम्मानित श्री भट्ट हिमालय एवं हिमालयों के ग्लेशियरों के पिघलने और नदियों पर आ रहे संकटों को लेकर लगातार सक्रिय है।

पद्मश्री एवं पद्म विभूषण से विभूषित चंडीप्रसाद भट्ट पिछले दिनों एकदिनी प्रवास पर इंदौर आए थे। पहाड़ों में हरियाली को थामे श्री भट्ट लगभग २० वर्ष बाद इंदौर आए तथा यहां सीमेंट-कांक्रीट के जंगलों के बीच “शहरों में हरियाली थामने” का संदेश दिया।

श्री चंडीप्रसाद भट्ट से विशेष बातचीत “पर्यावरण डाइजेस्ट” के संयुक्त सम्पादक कुमार सिद्धार्थ ने की। प्रस्तुत है बातचीत के सम्पादित अंश।

प्रश्न : उत्तराखंड में नदियों पर अनेक हाइड्रोइलेक्ट्रिक पावर प्लांट लगाए जा रहे हैं, इससे हिमालय के क्षेत्र में क्या पर्यावरणीय प्रभाव पड़ने वाला है?

उत्तर : उत्तराखंड सरकार और केंद्र सरकार द्वारा नदियों पर अलग-अलग परियोजना का निर्माण कार्य चल रहा है। कहा जा रहा है कि इस पूरे क्षेत्र में लगभग २५०-३०० हाइड्रोइलेक्ट्रिक पॉवर प्रोजेक्ट तैयार होंगे। इसका विरोध भी हो रहा है। उत्तराखंड में पिथौरागढ़-चमोली-उत्तरकाशी संवेदनशील क्षेत्र है, जहां से भागीरथी, यमुना, अलकनंदा, गौरी, धोली और काली नदियां निकलती है। ये नदियां हिमालयीन नदियां है।

भूगर्भविदों के अनुसार में सभी नदियां झोन पांच के अंतर्गत आती है। भूस्खलन जैसी घटनाएं अधिक हो रही है। पावर प्रोजेक्ट से होने वाले पर्यावरणीय नुकसान का कोई समग्र अध्ययन नहीं किया गया है। कोई पावर प्रोजेक्ट शुरु करने के पहले स्थानीय समुदाय पर उनकी संस्कृति और जीव जंतु पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया जाना चाहिए।

प्रश्न : क्या आपको लगता है कि “चिपको आंदोलन” का प्रभाव कम होता जा रहा है, जबकि युवा पीढ़ी को इस दिशा में अभिप्रेरित करने की जरुरत है ?

उत्तर : चिपको का प्रभाव आज भी उत्तराखंड में देखा जा सकता है। वहीं चिपको आंदोलन की वजह से देश के दूरदराज हिस्सों में भी पर्यावरण-संरक्षण के प्रति लोक चेतना फैलाने में मदद मिलेगी। १९७५-७६ में यह जन आंदोलन था। इसका मकसद पेड़ बचाने और लगाने से है। याने नंगे वृक्षविहीन इलाकों को हरा-भरा बनाना है। २०१० में भी यह अभियान “कैम्प” के माध्यम से संचालित है। स्थानीय युवाओं को “ईको डेवलपमेंट” शिविरों के माध्यम से जल, जंगल, जमीन के बारे में प्रशिक्षित किया जा रहा है।

प्रश्न : जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों के पिघलने की बातें जोर शोर से हो रही है ? हिमालय के क्षेत्र में ग्लेशियरों की क्या स्थिति है?

उत्तर : दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और ग्लेशियरों के पिघलने का हौव्वा पैदा किया जा रहा है। निश्चित ही तापमान वृद्धि से पर्यावरण असंतुलन हो रहा होगा। लेकिन ग्लेशियरों के पीछे खिसकने की बातें हो रही है। वैज्ञानिक लगातार इनका उल्लेख कर रहे हैं। लेकिन पर्यावरण के नाम पर हवा चल रही है, सुनी-सुनाई बातें की जा रही है।

वस्तुस्थिति यह है कि इनके तथ्यात्मक आंकड़े ही नहीं है। इसके लिए समग्र अध्ययन होना चाहिए। इसका प्रभाव वनस्पति, जीव-जंतु, प्राकृतिक पानी के स्त्रोतों, सिंचाई के पानी आदि पर क्या होगा, इसका विस्तृत अध्ययन अब तक नहीं किया जा सका है। विज्ञान के युग में ग्लेशियरों के पीछे जाने के क्या कारण है, नहीं खोज पाएं हैं। नेशनल फारेस्ट कमीशन की रिपोर्ट में मैंने अध्ययन केंद्र स्थापित किए जाने की अनुशंसा की थी, जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया है।

प्रश्न : क्या ग्लेशियरों के संबंध में अब तक कोई शोध कार्य नहीं किए गए है ?

उत्तर : कुछ अध्ययन तो मेरे देखने-पढ़ने में आए है। सन् १९६२ से २००४ तक १२६ ग्लेशियरों की अध्ययन रिपोर्ट जारी की गई थी, इसमें कुछ ग्लेशियरों का ३८ प्रतिशत भाग पिघल गया है। चंद्रा के ११६ ग्लेशियरों का ३० प्रतिशत, भागा के १११ ग्लेशियरों का २० प्रतिशत, गौरी गंगा के ६० ग्लेशियरों का १६ प्रतिशत, धौली के १०८ ग्लेशियरों का १३ प्रतिशत, सुख के २१५ ग्लेशियरों का ३८ प्रतिशत भाग पिघल गया है। लेकिन बर्फ किस रफ्तार से पिघल रही है ? नदियों पर बड़ी परियोजना का भविष्य क्या होगा ? जैसे पहलुओं पर अध्ययन होने चाहिए।

प्रश्न : पर्यावरण संरक्षण के लिए स्थानीय स्तर पर क्या प्रयास किए जाने चाहिए ?

उत्तर : पर्यावरण के प्रति सरकार भी सचेत है। अब कम के कम स्थिति यह हो गई है कि सरकार को पेड़ काटने, जंगल काटने के पहले सोचना पड़ता है। अगर पेड़ों, जंगलों और प्राकृतिक संपदा के बारे में सरकार अपना सोच बदल दें, विकास नीतियों को त्याग दें, तो देश की आधी से अधिक अशांति दूर हो जाएगी। जनसामान्य को भी जागरूक रहने की जरूरत है ताकि अपने क्षेत्र में क्रियान्वित होने वाली योजनाओं के प्रति उनकी समझ भी साफ होना चाहिए।

प्रश्न : पर्यावरण एवं विकास के द्वन्द को कैसे दूर किया जाए ?

उत्तर : विकास के नाम पर्यावरण का विनाश लगातार हो रहा है। जैसे धरती में भूस्खलन होता है, उसी प्रकार विचारों में भी भूस्खलन होता है तथा पर्यावरण भोगवादी वृत्ति के कारण हाशिये पर चला जाता है। इसलिए चाहिए कि समाज और सरकार इस द्वन्द को समाप्त करने के लिए मिल बैठकर विचार-विमर्श करे, जिससे कोई आसान तीसरा रास्ता निकल पाएगा।



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