त्यजेयं वा वृद्धावगतिपितरौ दारशिशुकान् ।
कथं वा मज्जीवान् बत परिहरेयं निजजनान्
सतां श्लाघ्यो भूत्वात्मफलकलनो मुह्यति कुधीः ॥
अहो! ऋणी होकर मैं कैसे श्रीवृन्दावन जाऊं ? अगति वृद्ध मातापिता एवं स्त्रीपुत्रादि को मैं कैसे छोड़ सकता हूं ? और जो मद्गतप्राण हैं, ऐसे अपने परिवार के लोगों को मैं कैसे त्याग करूं ? इस प्रकार की निष्फल चिन्ताएं कर सज्जनपुरुषों से प्रशंसनीय होकर कुबुद्धि पुरुष मोहित होते हैं ॥१.९२॥
अप्यर्तिव्रातनिबन्धनं दृढतरं कुर्वे सुदृक्स्वन्धवत् ।
श्रीवृन्दाटवि मातरेकमिह मज्जीवातुरस्ति स्वयं
यत्त्वं स्नेहमयी विकृष्य जनतां स्वाङ्कं समानेष्यसि ॥
श्रीराधाकृष्ण रहस्यमय शृङ्गाररसात्मक दास्यरस ही मेरा अभिलषित पुरुषार्थ है । मैं कब यह समस्त त्याग कर नियत काल पर्यन्त श्रीवृन्दावन में वास करूंगा ? इस प्रकार से जो पुरुष गृहादि में परम आसक्ति के कारण एवं उसे त्याग करने में असमर्थ होता हुआ वाक्य द्वारा ही केवल घोषणा करता रहता है, उसकी रक्षा श्रीवृन्दाटवी करती है ॥१.९४॥
त्यक्त्वा सर्वमहं कदापि नियतं वत्स्यामि वृन्दावने ।
इत्थं स्यादपि वाचि यस्य परमासक्तस्य गेहादिके
नासक्तापिसक्तता परिहृतौ तं पाति वृन्दाटवी ॥१.९४॥
अमृत जानते हुए भी उसे त्याग कर मैं स्वयं विष पान कर रहा हूं, सुन्दर नेत्र रखते हुए भी महा अंधे की तरह दुखों के समूह के कारण बन्धन को और भी दृढतर करता जा रहा हूं । हे माता वृन्दाटवि ! मुझे एकमात्र यही जीवनाशा दीखती है कि आप स्नेहमयी हो । अतः परिवारसम्बन्धियों से खैंचकर मुखे अपनी गोद में ले लोगी ॥१.९३॥
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