Tuesday, June 22, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.७४-७६



निष्किञ्चनान् कृष्णरसे निमग्नान्
महानिरीहान् जनसङ्गभीतान् ।
वृन्दावनस्थान् वसनाशनाद्यै-
र्यः सेवतेऽसौ वशयेत्तदीशौ ॥

निष्किञ्चन कृष्णरस में मग्नचित्त एवं महानिरीह (वासनारहित) तथा जनसङ्गभीत एकान्तप्रिय श्रीवृन्दावन में वास करने वले महात्माओं की जो वस्त्र एवं भोजनादि के द्वारा सेवा करता है, वह श्रीयुगलकिशोर को ही वशीभूत कर लेता है ॥१.७४॥



वृन्दारण्यमन्यभावमधुराकारेहितो राधिका
कृष्णक्रीडितरञ्जितप्रविलसत्कुञ्जावलीमञ्जुलम् ।
योऽन्यत्रापि कृतस्थित्र् विधिवशाच् छोचन् सदा चिन्तयेन्
नित्यं तन्मिलनं विचिन्त यदहं तद्धामयुग्मं भजे ॥

जो अन्य स्थान में वासरूप दुर्भाग्य से दुखी होते हुए अनन्य भाव से मधुराकृति श्रीवृन्दावन के लिये लालसायित होकर श्रीराधाकृष्ण के क्रीडामय, रमणीय एवं विलासमय कुंजों से परिशोधित श्रीवृन्दावन की सदा चिन्ता करता रहता है, उसको मिलने के लिये जो नित्य श्रीवृन्दावन में चिन्ता करते हैं, उन ज्योतिर्मय श्रीयुगलकिशोर का मैं भजन करता हूं ॥१.७५॥



राज्यं निष्कण्टकमपि परित्यज्य दिव्याश्च रामाः
कामान् सर्वानपि च विहितांस्तिक्ततिक्तान् विदन्तः ।
हित्वा विद्याकुलधनजनाद्याभिमानं प्रविष्टा
ये श्रीवृन्दाविपिनमपुनर्निर्गमांस्तान् नमामः ॥

श्रीविष्णु के समस्त धामों से (परव्योम से) भी अधिक स्फूर्तिशील महानन्दमय जो श्रीवृन्दावन है, उस धाम के सब जीव अपनी हत्या करने वालों की भी दान और मान से सेवा करते हैं, एवं जिन्होंने श्रीराधाकृष्ण को परम ऋणी किया है, उन पूर्ण प्रेम के भोजन धन्य धन्य पुरुषों को हम नमस्कार करते हैं ॥१.७६॥


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