Friday, June 11, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृत १.५०-१.५२



भ्रातस्ते किमु निश्चयेन विदितः स्वस्यान्तकालः किमु
त्वं जानासि महामनुं बलवतो मृत्योर्गतिस्तम्भने ।
मृत्युस्तत्करणं प्रतीक्षत इति त्वं वेत्सि किं वा यतो
बारं बारमशङ्क एव चलसे वृन्दावनादन्यतः ॥

अरे भाई ! तू क्या अपने मृत्यु काल को निश्चय रूप से जानता है कि कब होगा ? बलवान् मृत्यु की गति को रोकने विषयक क्या तू कोई महा मन्त्र जानता है ? मृत्यु तुम्हारे कार्य की इन्तजार करेगी, क्या तेरी ऐसी धारणा है ? जो तू बारम्बार निशङ्क चित्त होकर वृन्दावन से अन्यत्र चला जाता है ॥१.५०॥


श्रीवृन्दाख्यमनन्यभक्तिरसदं गोविन्दपादाम्बुज-
द्वन्द्वे मन्दधियो विदन्ति नहि तद्वासं च नाशासते ।
सान्द्रानन्दरसाम्बुधिर्निरवधिर्यत्राविरस्ति ध्रुवं
नो मज्जन्ति कुबुद्धियो बत समुद्विग्नाः सुदुःखैरपि ॥

श्रीवृन्दावन श्रीगोविन्द के युगल पाद पद्मों में अनन्य भक्ति रस दान करता है, यह बात मन्द बुद्धि लोग नहीं जानते, वे श्रीवृन्दावन में वास करने की आशा भी नहीं करते । असीम गाढ़ आनन्द समुद्र जहां निश्चित ही आविर्भूत हुआ है, हाय, मूर्ख लोग अनेक दुखों के द्वारा व्याकुल चित्त होते हुए भी उस रस समुद्र में मज्जन करना नही चाहते ॥१.५१॥



न वेदाज्ञाभङ्गे कुरु भयमयेनापि वचनं
गुरूणां मन्येथाः प्रविश नहि लोकव्यवहृतौ ।
कुटुम्बाद्ये दीने द्रव न कृपया नो भव सितोऽ
सकृत् स्नेहैर्वृन्दावनमनु हठान् निःसर सखे ॥

हे सखे ! वेदों की आज्ञा को भङ्ग करने में भय मत कर । मातापितादि गुरुजनों के वचनों को मत मान, लोकव्यवहार वा लोकापेक्षा में प्रवेश न कर, दीन चित्त कुटुंबियों के प्रति करुणा से द्रवित न हो, स्नेह में आकर वार वार संसार में आबद्ध न हो, श्रीवृन्दावन के लिये शीघ्र ही धावित हो ॥१.५२॥


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