समयसमयसर्वेशैकभक्त्याश्रितानाम् ।
न निजरुचिकरं वर्त्मोत्सृजन्तः स्थिताः स्मो
वयममलसुखौघस्यन्दिवृन्दावनाशाः ॥
विषयरूप विष के जो कृमि लोलुप हैं, उनका, बोधमात्रात्मवादी रुक्षज्ञानियों का, एवं वृद्धावस्था में भय से भगवान् का भजन करने वालों का मार्ग हमारे रुचिकर नहीं है । अतः उसको त्याग पूर्वक हम निर्मल सुखराशि देनेवाले श्रीवृन्दावन की आशा लेकर बैठे हैं ॥१.८६॥
स्वार्थं मत्वा कृतार्था अथ न सुखविवेकादयो ग्राह्यवाचः ।
स्वीयाः सर्वे जिघांसन्त्यहह बहुमृषा स्नेहपाशैर्निबध्य
श्रीवृन्दारण्य यायामहमहितसमाजात् कदा निसृतस्त्वाम् ॥
सम्बन्धि अथवा मित्रों के वाक्य पागलों के से हैं । माया से मोहित होकर उनकी बुद्धिवृत्ति नाश हो गई है, अनर्थों के बीज को ही स्वार्थ मानकर वे कृतकृतार्थ हो रहे हैं एवं वास्तव सुख तथा विवेकादि के उपदेश को वे ग्रहण नहीं करते । अहो मेरे स्वजनगण अत्यन्त झूठे स्नेहपाशों में बान्ध कर मुझे मारने की चेष्टा करते हैं । हे श्रीवृन्दावन ! मैं कब इस अनिष्टकारी समाज से छुटकारा पाकर आपके आश्रित हूंगा ? ॥१.८७॥
उद्धृत्य मूढं कृपया स्वयैव ।
कामादिकालाहिगुणैर्निगीर्णं
मातेव वृन्दाटवि नेष्यसेऽङ्कम् ॥
मैं जो गृहरूप अन्धे कूप में गिरा हुआ हूं, कामादि कराल कालसर्प से ग्रस्त हूं एवं मूर्ख हूं, हे वृन्दाटवि ! आप कब कृपापूर्वक मेरा उद्धार कर, माता की भांति मुखे अपनी गोदी में स्थान दोगी ? ॥१.८८॥
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