नाहं वेद्मि किमेतदद्भुततमं वस्तुत्रयीमस्तकैः
स्तव्यं प्रीतिभरेण गोकुलपतिर्यन्नित्यमासेवते ।
कन्दं प्रेमरहस्यं किं मधुरिमोत्कर्षान्त्यसीमोद्भुत-
सान्द्रानन्दरसस्य वा परिणतिं वृन्दावनं पावनम् ॥
मैं नहीं जानता वह कैसी अद्भुततम वस्तु है, जिसकी वेदसमूह नतमस्तक होकर वन्दना करते हैं, और श्रीगोकुलपति प्रेमपूर्वक जिसकी नित्य सेवा करते हैं । यह परम पवित्र श्रीवृन्दावन क्या प्रेमरस का मूल बीज है ? या माधुर्योत्कर्ष की चरमसीमा प्राप्त अद्भुत गाढ़ आनन्दरस का परिणाम ? ॥१.६२॥
सर्वं चेत्स्यात्कुटुम्बं किमिव मम ततो दुर्दशाः स्युस्ततः किम् ।
सेवाधीशस्य न स्याद्यदि किमिव ततः श्रीलवृन्दावनेऽहं
स्थास्याम्य्आस्थाय धैर्ये मम निजपरमाभीष्टसिद्धिर्भवित्री ॥
यदि सब लोक मेरी यथेष्ट निन्दा करें, उससे मेरी हानि क्या ? यदि मेरा सब कुटुम्ब दीनातिदीन या अत्यन्त दरिद्र हो जाये तो उससे मेरा क्या बिगाड़ ? मेरी अत्यन्त दुर्दशा हो तो क्या ? और यदि भगवान् की सेवा मुझ से न बन पड़े तो मेरी हानि क्या ? किन्तु मैं श्रीवृन्दावन में धैर्य-पूर्वक वास करूंगा, अवश्य हो मुझे अपनी परम अभीष्ट वस्तु प्राप्त होगी ॥१.६३॥
कुर्वन्नव्यर्थवार्तां कथमपि न वृथा चेष्टया कालयापी ।
त्यक्त्वा सर्वाभियानं प्रतिगृहमटनं तुच्छभैक्षाय कुर्वन्
वृन्दारण्ये निवत्स्याम्यनिशमनुसरन् राधिकैकात्मलोकान् ॥
कन्था कौपीन धारण करते हुए, वृक्षों के नीचे गिरे हुए फल आदि के द्वारा जीविका निर्वाह करके, आवश्यक वार्ताओं की आलोचना करते हुए एवं किसी प्रकार भी समय को वृथा व्यतीत न करके, सकल अभिमान त्याग पूर्वक तुच्छा भिक्षा के लिए घर-घर में जाकर तथा श्रीराधिका जी के निज जनों का अनुसरण करते करते मैं निरंतर श्रीवृन्दावन में ही वास करूंगा ॥१.६४॥
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