Photo by Abha Shahra.
च्छविविमललसच्चिद्विग्रहे सद्गुणौघे ।
बहिरगतदृगन्तुर्धैर्यमालम्ब्य नित्य-
स्मृतिरधिवस वृन्दारण्यमन्यानपेक्षः ॥
यहां की अपनी व परायी सब वस्तुएं ही कोटि कोटि सूर्य चन्द्र की कांति युक्त हैं, निर्मल चिन्मय मूर्ति एवंउत्तम गुण समूह से पूर्ण हैं । यह नित्य स्मरण रखते हुए बाह्य विषय की ओर दृष्टिपात न कर धैर्य पूर्वक निरपेक्ष होकर श्रीवृन्दावन में वास कर ॥२.७॥
म्बोधेरुद्भूत फेनस्तवकमयतनूः सर्ववैदग्ध्यपूर्णाः ।
कैशोरव्यञ्जितास्तद्घनरुगपघनश्रीचमत्कारभाजो
दिव्यालङ्कारवस्त्रा अनुसरत सखे राधिकाकिङ्करीस्ताः ॥
घोर संसार के कारण इसी कुत्सित् शरीर में वृथा अध्यास, अर्थात् अहंता-ममता, त्याग कर, अपना शरीर एवं श्रीवृन्दावनका समस्त ही चिद्घन जानकर धारणा कर, यहां कोटि कोटि घोरतर विपत्तियों के आने पर भी तुम विकार ग्रस मत होना, जब तक प्रारब्ध नाश नहीं होती इस श्रीवृन्दावन में ही वास कर एवं नित्य श्रीयुगलकिशोर की लीला का चिन्तन कर ॥२.८॥
म्भोजश्रीमुरलीधरं पृथुलसद्वेणीसुभर्होज्ज्वलम् ।
संवीतोज्ज्वलशोणपीतवसनं कन्दर्पलीलामयं
श्रीवृन्दावनकुञ्ज एव किमपि ज्योतिर्द्वयं सेव्यताम् ॥
कन्दर्प लीलामय किसी एक अनिर्वचनीय ज्योतिर्मय जोड़ी की श्रीवृन्दावन के कुञ्जों में ही सेवा कर, उनमें में एक दिव्य स्वर्ण वर्ण है, अपर सुन्दर इन्द्रनील मणि वर्ण विशिष्ट है, एक के हाथ में नीलिमा युक्त रक्त वर्ण विशिष्ट लीला पद्म एवं दूसरे के हाथों में मोहन मुरली है, एक के सिर पर विशाल वेणी एवं दूसरे के सिर पर मोर पुच्छ सुशोभित है, परिधान में एक ने उज्ज्वल रक्त वर्ण वसन एवंअपर ने सुन्दर पीताम्बर धारण कर रखा है ॥२.९॥
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