Monday, July 12, 2010

श्रीवृन्दावन-महिमामृतम् २.३४-३६

Photo by Gopinath Das.


धन्यो लोके मुमुक्षुर्हरिभजनपरो धन्यधन्यस्ततोऽसौ
धन्यो यः कृष्णपादाम्बुजरतिपरमो रुक्मिणीशप्रियोऽतः ।
याशोदेयप्रियोऽतः सुबलसुहृदतो गोपकान्ताप्रियोऽतः
श्रीमद्वृन्दावनेश्वर्यतिरसविवशाराधकः सर्वमूर्ध्नि ॥


इस पृथ्वी पर जो मुमुक्षु हैं, वे धन्य हैं । जो हरि भजन परायण हैं, वे धन्य धन्य हैं । उन से उत्कृष्ट वे हैं जो श्री-कृष्ण के चरणकमलों मे परमासक्त हैं । उन से अधिक रुक्मिणी वल्लभ श्री-कृष्ण के भक्त हैं । उन से श्रीयशोदानन्दन श्री-कृष्ण के भक्त वृन्द अधिक प्रशंसनीय हैं । उन से अधिक धन्य सुबल सखा श्री-कृष्ण के प्रिय गण हैं । उन से अधिक गोपीजन धन्य हैं, श्री-कृष्ण की प्रीति परायणा हैं । किंतु श्रीमद्वृन्दावनेश्वरी के परम रस विवश श्री-कृष्ण आराधक सब के मुकुट मणि हैं ॥२.३४॥




एकं सख्यापि नो लक्षितमुरसि लसन् नित्यतादात्म्यकान्तं
तद्दृश्यं दूरतोऽन्यद्व्रतति नवगृहेऽन्यत्तु तन्मर्मशर्म ।
अन्यद्वृन्दावनान्तर्विहरदथ परं गोकुले प्राप्तयोगं
विच्छेद्यन्यत्तदेवं लसति बहुविधं राधिकाकृष्णरूपम् ॥


श्रीराधा-कृष्ण रूप अनेक भावों से विलास परायण होकर विराजमान हैं । एक अवस्था यह है, सखी गणों से भी अलक्षितभाव से कान्ता एवं कान्त एक दूसरे की गाढ आलिङ्गन पूर्वक नित्य तादात्म्य भाव प्राप्त हैं, अपरावस्था है सखी गणों के द्वारा दूर से दृश्यमान हो कर लता निर्मित नवीन मण्डल में मिलन और एक अवस्था निकुंज में है । दोनों का परिहास युक्त मङ्गल वाक्यों में निरत होना, अन्यावस्था है वृन्दावन में नित्य विहार शील । और अवस्था है कुञ्जों में गोष्ठ में एवं गोष्ठ से कुञ्जों में गमनागमन करते हुए गोकुल में मिलन, और प्रकाश में वे माथुर विरह दशा प्राप्त हैं ॥२.३५॥





श्रीशङ्करद्रुहिणमुख्यसुरेन्द्र वृन्ददुर्ज्ञेय-
राधामानसदिव्यमौननिलयं तद्वक्त्रचन्द्रोच्छ्रितम् ।
तत् कन्दर्पसुमन्दरेण मथितं सख्यक्षिपीयूषदं
कञ्चिच्छ्यामरसाम्बुधिं भज सखे वृन्दाटवीसीमनि ॥


हे सखे ! श्रीवृन्दावन वासी उस अनिर्वचनीय श्याम रस समुद्र का भजन कर, उस श्याम रस समुद्र में नित्य ही काम रङ्ग विलास लीला मय उत्तुङ्ग तरङ्गें प्रकाशित हो रही है, उस में श्रीराधा का मन रूप दिव्य मत्स्य निरन्तर वास करता है । वह श्रीराधा मुख चन्द्र के द्वारा उच्छलित होता है । श्रीराधा के काम रूप सुमन्दर पर्वत के द्वारा वह मथित होता है । एवं वह सखियों के नेत्रों को अमृत दान करने वाला है ॥२.३६॥


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